Sunday, May 23, 2010

श्रेष्ठतर क्या है?

छिड़ जाती है,
अक्सर यह बहस,
कही भी, यूँ ही,
किसी भी बहाने
कि श्रेष्ठतर क्या है?
जंगलराज, राजतन्त्र
या लोकतंत्र ?


सभ्यता के नाम पर
हमने जंगलराज ठुकराया,
जनता के नाम पर
राजतन्त्र को ठुकराया.
समाजवाद और मानवता के
नाम पर लोकतंत्र अपनाया.


सही है -
कि लोकतंत्र आया,
स्वतंत्रता के नाम पर
विदेशियों को भगाया.
परन्तु ....
वह मानव कहाँ है?
मानवता कहाँ है?
वह इन्सान कहाँ है?
इंसानियत कहाँ है?


इस जंगे आजादी में,
पुत्र और दामाद दोनों को,
खोनेवाला किसान कहाँ है?
संविधान का प्राविधान कहाँ है?
मजबूरों का अधिकार कहाँ है?


सुनहले ख्वाबों की
तश्वीर कहाँ है?
हमारे आदर्श और
ईमान कहाँ है?
देश की बढती आजादी में
मानव कहाँ है?
लोग तो बहुत दीखते हैं,
मगर इन्सान कहाँ हैं?


स्ट्रीट लाइट के नीचे,
भौकते कुत्तों की
कर्कश आवाजों के बीच,
नि:शब्दता; नीरवता के साथ
पुस्तकों में, समाधि
लगाने वाले बच्चों की,
तक़दीर आज कहाँ है?

.....वे बैकफूट पर क्यों हैं?

ऐसे भी क्षण
आये हैं जीवन में....,
जब ......वर्दी की लाज ......
किसी अपराधी ने बचाया है.
अपराधी तो उस इन्सान को
'इनकी' ....और .....'उनकी'
गठजोड़ ने बनाया है.


अपराधी की इंसानियत,
उसके अन्दर की मानवता
तो फिर भी.....
जाग उठती है कभी न कभी,


परन्तु मित्रों!
खादी की नीयति,
अभियंता की तकनीक,
डॉक्टर की सिरिंज,
शिक्षक की शिक्षा और
खाकी के सेवा भाव में
खोट क्यों है?


ऐसा नहीं है कि खादी वालों में,
संवेदनशील नेता नहीं हैं .
खाकी वालों में कानून के रखवाले,
देश के सच्चे सपूत नहीं है.
कुशल अभियंता, समर्पित चिकित्सक
और योग्य अध्यापक नहीं हैं,


परन्तु अफ़सोस .......
आज वे आज हासिये पर
क्यों ...हैं..?
लाख योग्यताओं के बावजूद.
वे फ्रोन्टफूट के बजाय
बैकफूट पर क्यों हैं?

प्रगति का सर्वोपयोगी फार्मूला

हमने देखी है आपके अन्दर
मानवता की एक झलक,
इसलिए आमंत्रित किया है,
कुछ कहने का दुस्साहस किया है.


क्या कहा आपने भाई साहब?
आपको अध्यात्म से लगाव है.
कोई बात नही, केवल इतना सोचिये:
केवल एकांगी विकास क्या करेगा?
ज्यादा से ज्यादा आपको ताड़ का
एक लम्बवत पेड़ बना देगा.


और आपने क्या कहा भाई साहब?
भौतिकवादी है, आपको धन से लगाव है?
कोई बात नही, केवल इतना सोचिये:
यह भी एकांगी बना देगा.
अमरबेल की तरह, क्षैतिज प्रगति;
तो होगी, परन्तु.रीढ़ की हड्डी नहीं होगी.
उंचाई का एकदम अभाव होगा,
यह दीन - हीन - पंगु बना देगा.


अनियमित प्रगति, आपके जीवन की
गति को 'जिग-जैग' बना देगी.
'जिग-जैग', एक ऐसी गति है;
जहाँ श्रम - परिश्रम तो है लेकिन,
सब कुछ, दिशाहीन - निरर्थक...
इसकी परिणति मात्र थकन है;
जिसका न आध्यात्मिक मूल्य है,
और न ही कोई भौतिक मूल्य.


क्या यह उचित नहीं होगा?
कि प्रगति और उत्थान संतुलित
और सुनियोजित किया जाय? .
संतुलन और समग्रता की इस स्थिति में,
हर प्रगति बन जाएगी, हमारे लिए -
एक 'त्रिज्या'; और हम - 'एक वृत्त',
'एक शून्य'... और ....'एक अनंत'.


'वृत्त' के सुविचाररूपी त्रिज्या को,
सद्भावना से अभिसिंचित कर,
श्रमशीलता के उर्वरक से,
'मनोवांछित व्यास की वृत्त'
संरचना में, कोई संदेह नहीं.


और 'वृत्त' क्या है?
सम्पूर्णता का बोधक,
परम सत्ता का सूचक,
जिसे मान्यता प्रदान की है,
अध्यात्म और विज्ञानं,
दोनों ने ही एक साथ.


दुर्गुणों से रहित हम 'शून्य' हैं,
'समाधि' हैं, 'कैवल्य' हैं, 'निर्वाण' हैं,
'बका', 'फना' और 'जीवन मुक्त' हैं.
सद्गुणों से पूरित, हम 'विराट' हैं.
'अनंत' हैं, 'परिपूर्ण' हैं, 'सम्पूर्ण' हैं.


यही 'पूर्णता' है, 'पूर्णता का दर्शन' है.
जो गुम्फित है, इस उपनिषद् सूत्र में -
"पूर्णं अदः पूर्णं इदं पूर्णात पूर्णं उदच्यते,
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णं इव अवशिष्यते".