वंदना के गीत जो
गाया है हमने....
अर्चना के शब्द को
कंठ की आवाज दी है,
शब्द के उस बोल की ही
क्या कभी पहचान की है?.
वंदना और अर्चना के
शब्द में अन्तर्निहित,
जो भावना, उस भाव पर
क्या कभी कुछ ध्यान दी है?
अक्षर - अक्षर गूंथकर
बना ली आरती हमने,
कर समर्पित श्रद्धा अपनी
भाव भी, पी ली है हमने
प्राप्तव्य था,
निहितार्थ जो,
प्राप्तव्य था,
पुरुषार्थ जो,
जिंदगी में, उसको हमने
क्या कभी स्थान दी है?
अक्षर तो अक्षर हैं सारे
शब्द बने जो- ‘क्षर हैं’
क्षर जाने अक्षर को
कैसे?
अक्षर ही जाने, ‘अक्षर’ को
अक्षर अमूर्त, अक्षर
समूर्त
अक्षर की बात निराली है,
अक्षर से निःसृत भाव हैं
जो,
वे भाव बहुत निराले हैं.
हम वंदना के गीत
जो गाते रहे हैं,
अर्चना के छंद
जो अपनाते रहें हैं,
बात जो अभिव्यक्ति में
संचित वहां पर,
क्या आचरण में हम
उसे अपनाने लगे हैं?
डॉ. जय प्रकाश तिवारी
भरसर, बलिया (उ.प्र.)
संपर्क: 9450802240
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