विज्ञानं और दर्शन का उद्देश्य :
"सिद्धांतों की खोज" करना,
"अथातो ब्रह्म (सिद्धांत) जिज्ञासा" - वेदांत सूत्र (१.१)
राम कथा का केन्द्रीय विन्दु :
अयोध्या - (यही अयोध्या रामकथा का प्रारम्भ और समापन स्थल है)
अयोध्या का अर्थ और निहितार्थ :
अयोध्या (अ + युद्ध), जहाँ युद्ध और द्वन्द न हो, अर्थात शांति हो. अयोध्या का दूसरा नाम अवध है. (अ + वध) अर्थात जहाँ अपराध न हों, पाप न हों, जहाँ कठोर सजा की, वध जैसी सजा की आवश्यकता ही न हो. ऎसी उच्च कोटि की शांति - व्यवस्था कायम हो जहाँ, वह है - अवध. दार्शनिक दृष्टि से जहाँ चित्त की वृत्तियों का पूर्णतः निरोध हो जाय, वह है - अयोध्या और वह है - अवध. यह एक साधक की अपनी मनः स्थिति है. साधना का उच्च सोपान है यह. यही योग की परिभाषा भी है - "योग: चिति वृत्ति निरोधः" - (योग सूत्र-१.१)
अयोध्या का रजा कौन? :
दशरथ.
दशरथ का अर्थ और निहितार्थ:
जो शारीर रूपी रथ में जुटे हुए दसों इन्द्रिय रूपी घोड़ों (५ कर्मेन्द्रिय + ५ ज्ञानेन्द्रिय) को अपने वश में रखे.ध्यातव्य है कि कठोपनिषद में "आत्मानं रथिं विद्धि शरीरं रथमेव तु / बुद्धिं सारथि विद्धि मनः प्रग्रह मेवच //...." (कठ -३.३-५) से इसी आशय को स्पष्ट किया गया है. और गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को इन्ही इन्द्रियों को वश में करके 'दशरथ; बनने का उपदेश देते हैं - (गीता ३.४१)
दशरथ - योग मार्ग का पथिक :
योगी के लिए निर्देश है -"योग: कर्मः कौशलम". इसके लिए अनिवार्य शर्त है "समत्वं योग उच्यते", समत्व दृष्टि की, समत्व के आचार-विचार की समदर्शी और समत्व की स्थिति में ही शान्ति-व्यवस्था कायम है. आतंरिक और वाह्य सुख की, प्रसन्नता की अवस्था है यह.
दशरथ की ३ रानियाँ कौन? :
त्रिगुण (सत + रज + तम) यही सत कौशल्या, रज सुमित्रा, और तम कैकेयी हैं.
योगी दशरथ को पुरुषार्थ की प्राप्ति :
एक योगी ही अपने जीवन में चरों पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) की प्राप्ति का सकता है. दशरथ रूपी साधक ने भी इन चारों पुरुषार्थों को प्राप्त किया था; ( धर्म - राम, अर्थ - लक्ष्मण, काम - भरत , मोक्ष - शत्रुघ्न)..
राम हैं - धर्म:
राम धर्म का प्रतीक हैं. धर्म को परिभाषित किया गया है - "धारयति असौ सह धर्मः". अर्थात हमारे अस्तित्व को धारण करे वह धर्म है. जिससे हमारा अस्तित्व है और जिसके अभाव में हम अपनी पहचान खो देते हैं, वह नियामक तत्व धर्म है. इस परिभाषा के अनुसार हम मानव हैं, इंसान हैं, अतः हमारा धर्म है - 'मानवता', 'इंसानियत'. यह मानवधर्म हमारी सोच, विचार, मन और आचरण से निःसृत होता है; इसलिए इसका नाम है - 'राम'. "रम्यते इति राम:" अर्थात जो हमारे शारीर में, अंग-प्रत्यंग में रम रहा है, वही है - 'राम'; और वही है - 'धर्म'. इस राम के कई रूप हैं, सबकी अपनी अपनी अनुभूतियाँ हैं - "एक राम दशरथ का बेटा, एक राम है घट - घट लेटा / एक राम का जगत पसारा, एक राम है सबसे न्यारा."
लक्ष्मण हैं - अर्थ :
जिसका लक्ष्य हो 'राम', जिसका एक मात्र ध्येय हो 'राम', वही है - 'लक्ष्मण' . अर्थ का धर्म के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ जाना ही अर्थ की सार्थकता, उसकी उपयोगिता और उसका गौरव है. अर्थ और धर्म का युग्म ही कल्याणकारी, लोकमंगलकारी है. अर्थ का साथ होने पर ही धर्म अपने उद्देश्य में सफल हो सकता है. लेकिन यह अर्थ उपयोगी तब है जब वह भोग, लिप्सा और विलासिता से दूरी बनाये रहे. भोग तो रहेगा, लेकिन त्यागमय भोग, 'तेन त्यक्तेन भुन्जीथा' के रूप में. राम रूपी लक्ष्य को छोडकर जो अन्यत्र न भटके; वह है - 'लक्ष्मण'.
भरत है - काम :
भरत का अर्थ है - भा + रत (भा = ज्ञान, रत = लीन), अर्थात जो सतत ज्ञान में लीन हो; वह है भरत. जिसकी सोच, जिसके विचार, जिसके कार्य, जिसकी जीवनशैली 'काम' को भी महनीय, नमनीय और वन्दनीय बना दे; वह है - भरत'.कम को हेय दृष्टि से देखने वालों की जो धारणा बदल दे वह है -'भरत'. काम की सर्वोच्चता का जो दर्शन-दिग़दर्शन करा दे, वह है- 'भरत'.
शत्रुघ्न हैं - मोक्ष :
कामना तो सर्वव्यापी है. कामना की पूर्ति न हो तो अशांति और क्रोध की उत्पत्ति होती है. परन्तु जिसकी कोई कामना ही नहीं; वह है - शत्रुघ्न. लक्ष्मण की कामना हैं -;राम', भरत की कामना हैं -;राम'. परन्तु जिसे राम की भी कामना नहीं है, जो वीतरागी है, जिसका अपना नहीं, कोई पराया नहीं, कोई कोई शत्रु नहीं; वही तो है -'शत्रुघ्न'. जिसने अपनी समस्त मनोवृत्तियों पर विजय प्राप्त कर लिया है, वही तो है -'शत्रुघ्न'. यही मोक्ष की स्थति है, जीवन मुक्त की स्थिति है, कैवल्य और निर्वाण की परिकल्पना इसी भाव से ओत-प्रोत है. यही गीता की शब्दावली में 'स्थितिप्रज्ञं है. बका और फना में इसी प्रकार के वीतरागी जीवन की परिकल्पना है. जीवनमुक्त जगत का कार्य तो करता है, क्योकि कार्य से मुक्ति किसी की नहीं हो सकती. लेकिन अब उसका कर्म निष्काम कर्म है, उसका कार्य कर्मयोग है. यह योग की पूर्णता है. यह कर्म - अकर्म - विकर्म......, इन सभी कोटियों से बहुत ऊपर की अवस्था है.
पुरुषार्थी की वृत्ति, दानवृत्ति:
पुरुषार्थी वृत्ति की परिणति दानवृत्ति में है. लोककल्याणार्थ धर्म और अर्थ (राम और लक्ष्मण) को सुपात्र, 'जगत के मित्र' विश्वामित्र के हाथों सौप देना ही पुरुषार्थ की उपादेयता और उपयोगिता है. पर्त्येक पुरुषार्थी का यह सामाजिक दायित्व बनता है कि राष्ट्र की प्रगतिशीलता, विकास और उत्थान में बाधक आसुरी - प्रतिगामी प्रवृत्तियों (ताड़का, सुबाहु, मारीच) से सृजनशील शोध संस्थानों, यज्ञशालाओं, प्रयोगशालाओं की रक्षा करे. आज भी समर्थवानों से, संवेदनशीलों से यही अपेक्षा है.
'धनुष यज्ञं' का अर्थ और निहितार्थ:
शिव महायोगी है. साधना के क्षेत्र में, प्रत्येक साधक को इस धनुष को तोडना पड़ता है. लेकिन एक योगी ही 'महायोगी शिव' के धनुष को तोड़ सकता है, कोई वंचक या ढोंगी नहीं. शिव के इस धनुष का नाम पिनाक है और निरुक्त में पिनाक का अर्थ बताया गया है -"रम्भ: पिनाकमिति दण्डस्य" अर्थात रम्भ और पिनाक दंड के नाम हैं. योग और अध्यात्म के क्षेत्र में यह पिनाक नाम ;मेरुदंड' का है. प्रतीक रूप में यही धनुष है. इसी धनुष की प्रत्यंचा को मूलाधार से खींच-तान कर सहस्रार तक ले जाकर चढाना पड़ता है. जो योगी होगा, जिसे षटचक्र भेदन का भलीभांति ज्ञान होगा, वही प्रत्यंचा चढ़ाकर धनुष को तोड़ सकता है. इस धनुष के निचले शिरे मूलाधार से आज्ञां चक्र की यात्रा के बाद ही साधक रुपी 'शिव' का मिलन 'शक्ति' से होता है. राम एक योगी हैं, कुण्डलनी विद्या द्वारा तडका - सुबाहु- मारीच रूपी काम-क्रोध-लोभ-मोह आदि कषाय-कल्मषों को विजित कर सहस्रार तक की यात्रा पूरी की थी. सहस्रार में सहस्रदल कमल खिलने की बात योगशास्त्र में बताई गयी है. इसी सहस्रार रूपी 'पुष्प वाटिका' में शिव (राम) का अपनी शक्ति (सीता) से प्रथम साक्षात्कार होता है. यही 'शिव-शक्ति' का मिलन भी है. धनुष यज्ञं के माध्यम से 'राम-सीता विवाह' की कहानी, 'शिव-शक्ति' के मिलन की कहानी है. जो योगी नहीं होगा, वह धनुष को हिला भी नहीं पायेगा. योगबल के अभाव में, कुण्डलिनी विद्या के अभाव में शारीरिकबल, धनबल, संख्याबल का कोई महत्त्व नहीं. इसी को संकेतित करते हुए गोस्वामीजी ने लिखा - "भूप सहसदस एकहिं बारा लगे उठावाहीं टरयी न टारा"
राजा दशरथ. एक अस्थिर-योगी:
योग का पथ कठिन साधना-पथ है. थोड़ी सी असावधानी भी साधक को उसके स्थान से, उसके प्राप्य और प्राप्ति से, भटका सकता है. उसके जीवन में उथल-पुथल मचा सकता है. त्रिगुणरुपी रानियों कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी के प्रति भाव असंतुलन रजा दशरथ को 'शासक दशरथ' के स्थान से च्युतकर 'शासित दशरथ' बना देता है. फलतः अब वृत्तियों द्वारा 'शासित दशरथ' की अभिलाषाएं, आकांक्षाये अधूरी रहतीं है, परिस्थितियाँ विपरीत हो जातीं हैं; शोक - पश्चाताप - दु:ख - अतिशय दु:ख, और अन्त में कष्टदायी मृत्यु. योगपथ में शिथिलता और सहस्रार तक की यात्रा पूरी न कर पाने के कारण 'तत्त्व साक्षात्कार' से भी वंचित.
राम रुपीयोगी (धर्म साधक) के कार्य:
योगी का कार्य है - साधना, स्वयं को, समाज को और राष्ट्र को ....इस साधना के मुख्यतः चार सोपान हैं -बुद्धि, चित्त, मन और अहंकार. धर्म का कार्य आचार-व्यवस्था, विधि-व्यवस्था, मानवता की स्थापना है. जंगल वह स्थान है जहाँ, मानवता का क्षरण हो रहा है. राम वनगमन का यही निहितार्थ है. सत (कौशल्या) को विश्वास है - 'जो पितु मातु कहेउ बन जाना तो कानन षत अवध समाना', जहाँ धर्म है; वहीं- अयोध्या है, वहीँ अवध है और वहीँ सुशासन है.
(i) प्रथम सोपान - बुद्धि जगत:
जहाँ बुद्धि है वहां द्वंद्व है, अनेकता है, तर्क-वितर्क है. जहां द्वंद्व, द्वंद्वों से अतीत हो जाय, तर्क शांत हो जाय, मानसिक सामाजिक कलह न हो, वह है - अयोध्या. अतः अयोध्या नगरी में या अयोध्याकाण्ड में घटित समस्त 'राम लीलाएं' बुद्धि की लीला है.
(ii) द्वितीय सोपान - चित्त जगत:
चित्त स्मृतियों और यादों का भंदारागार है. रामकथा में यही 'चित्रकूट' है. चित्रकूट में घटित समस्त 'राम लीलाएं' चित्त की लीला है, हलचल है. भाव तरंगों का बनना, मिटना, फिर बनना और फिर उठना ....यहाँ इसी की प्रधानता है. चित्त की पांच अवस्थाएं हैं - "क्षिप्तं मूढं विक्षिप्तं एकाग्रं निरुद्धमिती चित्त भूमयः" (योग १.१)
(iii) तृतीय सोपान - मानसिक जगत:
मन अत्यंत चंचल है. यहाँ कामनाएं हिलोरें मारती रहती हैं. उचित-अनुचित भी समझ में नहीं आता. बौद्धिक जगत के समाधान अस्थाई लगाने लगते हैं. कुछ समझ में नहीं आता. जो होता है, वह दीखता नहीं. जो दिखाई देता है, उसमे सच्चाई नहीं.पूरी तरह मृग मरीचिका की स्थिति है यहाँ. असंभव 'कंचनमृग भी' वास्तविक लगने लगता है. बुद्धि मोहित हो जाती है. पंचवटी ही मन है.पंचवटी में घटित समस्त 'राम लीलाएं' मानसिक जगत की लीला है. इसी मानसिक जगत में सचेत और संमित रहना है. मन को यदि नियंत्रित न किया गया तो विश्वामित्र की तरह अर्जित तपस्या गयी, सूर्पनखा की तरह नाक (मर्यादा) गयी, स्वयं राम की भी शक्ति (सीता) गयी.
(iV) चतुर्थ सोपान - अहंकार जगत:
अतिशय सम्पन्नता की प्राप्ति पर अहंकार आता है. इस अहंकार के विविध रूप हैं - शक्ति का अहंकार, धन का अहंकार, विद्या का अहंकार, बल का अहंकार, सत्ता का अहंकार,.....यहीं साधक के अपने अन्दर के रावण की पहचान कर उसे विजित करना है.
रावण कौन? :
जिसका अपनी इन्द्रियों पर अधिकार न हो. जिसकी दासों इन्द्रियां, उन्मुक्त हों; वह है - 'रावण'. अपनी खोई हुई शक्ति और रावण पर विजय प्राप्ति का मात्र एक उपाय है -'ईश्वराधन और पूजा.
रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग-स्थापना, पूजन का अर्थ और निहितार्थ:
धर्मकार्य में पूजन का अर्थ है - 'तत्त्व साक्षात्कार'. सिद्धांतों की खोज करना, अशिक्षितों को, नए साधकों को सिद्धांतो से परिचित करना. उन्हें सबल, अभय और कर्तव्यपरायण बनाना. वेदांत कहता है -"जन्माद्यस्य यतः". अर्थात जिससे इस जगत की उत्पत्ति, जिसमे इसकी स्थिति और जिसमे प्रलय होता है; वह सिद्धांत जान्ने योग्य है? क्या यह प्रश्न मात्र दर्शन और अध्यात्म का ही है? क्या यह विज्ञानं का प्रश्न नहीं है? अब यहाँ इस विन्दु पर यह कार्य अध्यात्म और विज्ञानं दोनों के लिए सामान रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है.
ज्योतिर्लिंग-पूजा का विज्ञान:
राम ने गुरु वशिष्ठ और विश्वामित्र के साथ- साथ अन्य ऋषियों से वेद-वेदांग की शिक्षा ग्रहण की थी. वे जानते हैं कि इस ब्रह्माण्ड का मूल स्रोत (नाभिक) क्या है? वेद जहाँ "वेदाहमस्य भुवनस्य नाभिम" (यजु. २६.६०) कहकर इसे खांकित किया है. वहीँ गीता ने "सर्वभूतानाम बीजं" तथा "प्रभवः प्रलयः स्थान निधानं बीजं अव्ययम" कहकर बताया है. वहीँ विज्ञानं ने इसे 'बिग बैंग' थियरी द्वारा विश्लेषित किया है. राम भी यही कार्य एक योग्य शिक्षक कि तरह निरक्षरों को, वानर-भालू को, वन नारों को विज्ञानं-दर्शन पढ़ा रहे हैं.
राम ने वहां उपस्थित सभी सहयोगियों को समझाया - सृजन और प्रलय प्रकृति का शाश्वत नियम है. दृष्टिगत यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अत्यंत घनीभूत होकर एक विन्दु रूप में विलीन हो जाती है. इसलिए अहंकारी रावण को परास्त करने के लिए इस ज्ञान सिद्धांत की, इस ब्रह्म सत्ता की आराधना-पूजा करना सर्वथा उचित है, श्रेयष्कर है.- "लयं गच्छति भूतानि संहारे भूतानि निखिलं यतः / सृष्टि काले पुनः सृष्टि: तस्माद लिंगामुदाह्रितम //" (लिंग पुराण- ९९.८). विन्दु की आराधना, विन्दु की पूजा, विन्दु में सिन्धु समाहित हो जाने का दर्शन वानरों की समझ में नहीं आया. तब राम ने मुट्ठी भर रेत हाथ में लेकर गोलाकार पिंड बनाया, मंत्रोच्चार सहित स्थापित किया. राम समझाते रहे, यही पिंड, शिवलिंग,है, शालीग्राम है...ब्रह्मा का प्रतीक है. -"मूले ब्रह्मा तथा मध्ये विष्णु त्रिभुवानेश्वार: रुद्रोपरी महादेव: प्राणवाख्य: सदाशिवः //" वानरों की समझ में अब भी कुछ नहीं आया. तब राम ने पिंड को अंडाकार बनाया, उसके नीचे अर्घा (जलहरी) बनाया, और अपनी व्याख्या को और सरल किया. यह अंडाकार पिंड 'ब्रह्माण्ड पुरुष सिद्धांत' है, तथा यह अर्घा (जलहरी) 'ब्रह्माण्ड नारी सिद्धांत' है. युग्म रूप में यही 'शिवशक्ति', सिद्धांत है,यही 'अर्द्ध-नारीश्वर' है, यही सृजनहार है. यह परम तत्त्व है, इसे न केवल अध्यात्म तक सिमित किया जा सकता है न केवल विज्ञानं तक. यह असीम है, कल्याणकारी 'शिवम्' है. इसलिए यह न पुलिंग है, न स्त्रीलिंग और न ही नपुंसक लिंग. यह मात्र 'ब्रह्माण्ड लिंग' है. यही राम को सर्व प्रिय है -"लिंग थापि विधिवत करि पूजा शिव समान प्रिय मोहि न दूजा" . विधिवत पूजा का अर्थ है, उसके सिद्धांत को जानना, उसके अनुप्रयोग को जानना. केवल गोल पिंड ;न्यूट्रान' रूप है, अर्घा सहित पिंड 'अर्ध-नारीश्वर' रूप है, हाइड्रोजन रूप है. इस तत्त्व दर्शन ने वानरों के अंतर के भय को समाप्त कर दिया, ज्ञानचक्षु खुल जाने से अहंकार रूपी लंका पर विजी संभव हो पाया. यही रामकथा का संक्षिप्त विज्ञानं-दर्शन है. लंका विजय के पश्चात राम, अयोध्या नरेश हैं, दशरथ रूप हैं क्योकि "रामराज्य बैठे त्रैलोका हर्षित भये गए सब शोका...........". इसी में योग की, अध्यात्म की, विज्ञान की पूर्णता भी है.