Friday, July 2, 2010

ईमान आज डिगता है क्यों?

ईमान आज डिगता है क्यों? इन्सान आज बिकता है क्यों? साहस आज डरता है क्यों? मित्र आज छलता है क्यों? ये कुछ प्रश्न हैं जो छकाने लगे है, जागते ही नहीं सोते में भी सताने लगे है. जब से इंसान, ईमान की कीमत जानने लगा है, साहस की शक्ति और मित्र की भक्ति को भली - भांति पहचानने लगा है. तभी से, शायद तभी से उसे मिल गया है, अपनी कुत्सित वासनाओं को फलीभूत करने का एक सफल माध्यम, एक अवसर.

विज्ञानं की अति भौतिकता ने, उसकी कुशाग्रता, व्यावहारिकता ने मानवीय संवेदना को मार दिया है. लिप्सा की वेगवती प्रबल धारा ने, भावनाओं को धो डाला है. वह अच्छी तरह जनता है, जो अभी तक नहीं हुए शुष्क, अवसरवादी, भोगवादी और निरा भौतिकवादी, उन्हें कैसे ठगा जाना है? कब, कहाँ और किस तरह शिकार बनाना है? वह जनता है, जो नहीं है भौतिकवादी, वह है नर्मदिल इंसान, संवेदी और कमजोर प्राणी. उसकी कोमल भावनाओं को, उसके प्यार और सत्कार को, कभी चुराकर, कभी बंधक बना कर, और कभी कुचक्रों में फसाकर, किया जाता है मजबूर और मजबूर.

मजबूर ही बिकता है, मजबूर ही डरता है. मजबूर मित्र ही डंसता है, पतित होता है. कुछ तो हैं मजबूर तन से, कुछ मन से, और कुछ धन से. बुद्धि को भी मजबूर करनेवाला एक और शैतान जो पैदा तो बहुत पहले हुआ था, अब बहुत बड़ा हो चुका है. भक्ष्य - अभक्ष्य का कर आहार, अब हो गया है बहुत बलवान. यह बड़ो - बड़ों को मजबूर करता है. भाई को भाई के हाथों, पडोसी को पडोसी के हाथों और मित्र को मित्र के हाथों क़त्ल कराता है, कभी परंपरा के नाम पर, कभी पंथ के नाम पर, कभी जाति के नाम पर और कभी उस धर्म के नाम पर; जिसे जनता तक नहीं. जिसने अपने धर्म ग्रंथों का परायण तक नहीं किया कभी. कभी कुछ शब्दों, कुछ प्रसंगों को सुन भले लिया हो, मनन नहीं किया है, मंथन नहीं किया है कभी. उसे इसकी आवश्यकता ही क्या है ? जिसे इसकी घोर आवश्यकता है जब वही हैं उदासीन, बुद्धि - विवेक से पराधीन.

अब उन्हें क्या कहें, जो शब्दजाल फैलाते हैं, अर्थ - निहितार्थ को तोड़ कर विकृत करते हैं. रचते हैं कुछ ऐसा कुचक्र; जो पैदा करे अनर्थ. नई प्रतिभाओं को इसी में फंसाना चाहते हैं. वे जानते हैं, यदि नई पीढ़ी जान गयी सच्चाई फिर हाथ नहीं आएगी. अच्छा है कच्ची उम्र में ही कापी कलम के बदले पकड़ा दो उसे - ' A K- ४७', 'A K - ५६' और बना दो उन्हें नक्सली, आतंकवादी और उग्रवादी.

फिर क्या करे हम? इस कमजोरी को दूर भगायेंगे. और हम तो उनसे यही कहेंगे. हम तो सबसे यही कहेंगे - अरे भटके हुए महानुभावों! अब और न हमको भटकाओ. स्वर्गलोक की 'परी' और जन्नत की 'हूर' का लोभ - लालच मत दिखलाओ. हो सके ... हो सके तो स्वर्ग इसी धारा पर लाओ, हमें अब और न भटकाओ, हमें और न भटकाओ..