Friday, October 8, 2010

श्राद्ध की श्रद्धा से मिला - "सन्मार्ग"

यूँ तो माँ को गुज़रे हुए
हो गए हैं, कई वर्ष .
किन्तु लगता है......,
वह है बहुत निकट.....,
यहीं कहीं, आस पास ही.


मनाता हूँ अब भी श्रद्धा से -
'श्राद्ध', उसकी पुण्य तिथि को
प्रत्येक वर्ष, वैसे ही जैसे
कभी वह मनाती थी -
मेरा जन्मदिन हरसाल- हरवर्ष.
हाथ जोड़कर, विनीत भाव में
आज मांगता हूँ,उससे सन्मार्ग,
आशीर्वाद, उन्नति और उत्कर्ष.


आज फिर उसकी पुण्य तिथि है,
उसके चित्र को झाड - पोंछकर,
फूलमाला से सजाकर रखा है उसी
परंपरागत केक वाली चौकी पर.
समर्पित किया है - पुष्पं , पत्रं
और मधुरं उसे, श्रद्धा भाव से.
जलाया है दीप, चढ़ाया है चन्दन,
दिखाया है - अगरबत्ती औए धूप.


देखता हूँ आज - धूप के सुगन्धित धूम्र में,
माँ, आ खडी हुई है, लिपटी श्वेतवस्त्रों में.
अब दीख रही है माँ.., मेरी प्यारी माँ...
..अब साडी, उड़ रही है, हवा में धीरे ..धीरे...
माँ, हिला रही है ....हाथ; ...हौले....हौले.....
और अब विलीन हो गयी, हवा में...व्योम में....

हवा अब बदल गयी है, ..... मेघ....में,
मेघ संगठित होकर नभ में छा गया है,
हल्की, रिमझिम बूंदें बरसा गया है.
मेघ से तो बरसा था ......पानी;
पानी तरल था, .....बूंद रूप था,
पानी ठोस था, ...ओला स्वरुप था,
ध्यान आया सघन - संगठित
ओला ही तो है, हिमवान - हिमालय.

लगा सोचने, ..माँ तो ....गंधरूपी थी,
धूम्र बनी.., वायुरुपी थी.., जलरूप बनी .
तो क्या हिमनद रूप माँ का ही है ?
क्या ये नदियाँ..., दरिया.., ये झरने,
सब .....माँ का ही प्रवाह हैं.?

हां, तभी तो करते हैं,
पालन पोषण, माँ के समान.
और ये फलदार वृक्ष ?
ये ठूंठ ...सूखे ..से पेड़ ?
क्या इसने नहीं पाला है,
हमे माँ के समान ?
क्या इससे बने पलंग, कुर्सियां, सोफे ..
अनुभूति नहीं कराते, माँ की गोद का ?
दरवाज़े बनकर क्या नहीं करते सुरक्षा ?
छत बनकर क्या नहीं करते, हमारी रक्षा?

परन्तु, आश्चर्य है, यह बात पहली बार,
आज क्यों समझ में आ रही है?
क्योंकि, आज तुने सन्मार्ग पूछा है- माँ से.
प्रगति और उत्कर्ष का मार्ग पूछा है- माँ से.
पहली बार श्राद्ध किया है तूने श्रद्धा से.
माँ, अब तुझे सन्मार्ग दिखा रही है,
प्रगति का, उत्कर्ष ka मार्ग बता रही है.
सबमें अपने अस्तित्व का बोध
करा रही है, मानो कह रही हो,
बेटे! चित्र को छोड़ो, ..तस्वीर को भूलो.
सृष्टि में मेरा ही रूप देखो, वही हूँ मैं,
वही है मेरा असली रूप, मेरा स्वरुप....

सचमुच, इस दिव्य ज्ञान के आलोक में
देखता हूँ -दर्शन के 'सर्वेश्वरवाद' को ..
यह जल अब पानी नहीं, - 'माँ' है,
यह वायु अब हवा नहीं, - 'माँ' है.
यह वृक्ष अब लकड़ी नहीं, - 'माँ' है
यह अरण्य और आरण्यक,
ये सब कुछ और नहीं, - 'माँ' है.
ये प्रस्थर...ये शैल..माँ है, माँ है.


अरे हाँ, तभी तो कहा गया है माँ को
"शैलपुत्री", 'शैलजा' और 'गिरिजा' ,
धर्म ग्रंथों में. यह हिमनद "ब्रह्मचारिणी" के
तप से है द्रवित, स्नेह से है गतिमान,
माँ है - 'हिमाचल पुत्री', गिरिराज किशोरी.

अज्ञानता की जब तक है,
घनी धुँध छायी; वह 'क़ाली' है.
भद्रक़ाली - कपालिनी - डरावनी है.
ज्ञानरूप जब चक्षु खुला,
देखा, अरे! वह 'गोरी' है, 'गौरी' है.
वह अब अम्बा है, जगदम्बा है
ब्रह्मानी रूद्राणी कमला कल्याणी है
चेतना हुई है अब जागृत,
माँ ने इसे कर दिया है- झंकृत.
सचमुच आज सन्मार्ग दिखाया है,
मुझे सत्य का बोध कराया है.

लेते हैं संकल्प अभी से, संग तुम भी ले लो मेरे भाई.
अब न स्वयं करेंगे, न करने देंगे - "वायु प्रदूषित".
अब न स्वयं करेंगे, न करने देंगे - "जल को दूषित".
अब न स्वयं करेंगे, न करने देंगे - "ध्वनि प्रदूषित".
अब पेड़-पौध लगायेंगे, इसकी संख्या बहुत बढ़ाएंगे.
माँ का क़र्ज़ चुकायेंगे, अब माँ का क़र्ज़ चुकायेंगे.
हे माँ ! तुझे नमन, तुझे वंदन, बहुत बहुत अभिनन्दन.