Sunday, January 2, 2011

खेल जीवन का: सन्देश नव वर्ष का



खेल का खूबसूरत मैदान है - 'यह जगत ’.
जहां प्रत्येक व्यक्ति खेल रहा है सदियों  से .
कुछ सीख रहे और कर रहें है अपनी तैयारी 
पाने को मेडल - ट्राफी. बन जाने को सरताज ….
गगन में छा जाने को, वे बेकरार हैं आज ..

किसी-किसी को मिल जाती है – एंट्री  
यहाँ पिछले चोर दरवाजे से तो किसी का 
श्रम, परिश्रम और श्वेद भी है - नाकाफी .
ये हैं मैदान में उग आये कुछ अवांछित ‘कैक्टस’..

किसी के लिए ‘सौन्दर्य’, किसी के लिए ‘विभीषिका’.
लेकिन फिर भी है जीतने की – ‘दुर्घर्ष जिजीविषा ’.
मन में लिए एक विश्वास, दे रहा श्वेद का – ‘हव्य’.
उसके सामने  हैं उदाहरण  - ‘ध्रुव’ और ‘एकलव्य ’.
अरे ! वह जीत सकता है, और जिता भी सकता है;
अकेले दम – ‘बाजी’, ‘ट्राफी’, ‘सबसे बड़ी ट्राफी ’.

प्रत्येक खेल की होती है – कुछ ‘विशिष्टताएं’,
होते हैं विधान, नियम, और औपचारिकताएं ...
यदि खेल खेला जाय उन्ही नियमो से, विधान  से ,
उसमे उल्लास है, उत्साह है .उमंग है, ..आनंद है …

परन्तु किया यदि उलंघन उन नियमों का  
तो मिटेगा– सौहार्द्र, और छिड़ेगा संघर्ष .
यह तो मानव बुद्धि की है अपनी निजी स्वतंत्रता …
खेलता है जीवन का खेल – ‘नियमों से’ या 
बिगाड़ता है मजा - खेल का, आनंद  का . ..

यह जगत, यह प्रकृति एक ओर है  - सरस  
“रसो  वै  सः”, मधुरं और सुकोमल तो 
दूसरी ओर है –“महाभयम वज्रमुद्यतम” भी .
अब है हमारी स्वतंत्रता की परीक्षा की घडी ,
करते हैं चयन किसका - जब खेलते हैं खेल?
संग विज्ञान के, प्रकृति के, संस्कृति  के...?

नववर्ष में हमें करना है – एक ‘संकल्प’;
खेलेंगे जरूर ‘खेल जिंदगी  का’ क्योकि ,
नहीं है कोई इसका – ‘विकल्प’.
कोई फर्क नहीं पड़ता यहाँ– ‘जर्सी  का’
वह लाल हो या पीली, हरी हो या नीली.
वह अध्यात्म की हो, या विज्ञान की ,
किसी संतरी की हो या किसी मंत्री की. 

यहाँ शर्त बस एक ही है, बस एकही  
खुला रखेंगे दरवाजा - ‘बुद्धि  का’,
झरोखा ‘ज्ञान का’, खिड़की ‘विवेक की ’.
नहीं होगा वहाँ कोई ‘झीना’ पर्दा भी ;
किसी ‘भ्रम का’,‘विभ्रम का’,‘लोभ  का’…