Saturday, March 6, 2010

मानव की नई सभ्यता ?

हरे पत्तों और मुलायम घास की खोज में ,
अपनी ही धुन में अलमस्त बकरी ;
निकल गयी थी, दूर तक जंगल में.
तभी कुछ आहट पाकर जब शिर उठाया,
तो सामने भेडिए को खडा पाया.

सकपकाई घबराई बकरी मौत को सन्निकट पाकर,
वात्सल्य के नाम पर सदा की भांति मिमियाई ..... ;
युवराज! मेमने भूखे होंगे, हमें तनिक समय चाहिए,
उन्हें भर पेट निहारने का, दुलार्ने का, मातृत्व लुटाने का.
फिर लौट आउंगी, आपकी छुधातृप्ति के लिए, सच कहती हूँ.

भेडिए ने विजेता की तरह आँखों को नचाया,
मूंछों को घुमाया, दो-चार बूंद लार टपकाया और
अभयदान दे दिया बकरी को, जाओ ऐश करो !
मेरे पुरखे बुद्धू थे जो बकरी को ग्रास बनाते थे,
मैंने बकरी खाना छोड़ दिया और तुझे अभयदान दिया.
जाओ दीर्घाय हो ! फूलो - फलो !! गांधारी की तरह
शत - शत बलशाली पुत्रों की माता बनो.

बकरी हैरान थी ......
इस अद्भुत परिवर्तन को देखकर परेशान थी,
भावातिरेक में बोल पड़ी - आप महान है !
आप तो संत हैं - युवराज ! संत हैं, महासंत हैं !!
जय हो ! जय हो !! जंगल ने आजादी के
बासठसाल बाद गांधी - दर्शन अपनाया है;
अब तो नाचने - गाने - मुस्कराने का
मंगल अवसर पहली बार जंगल में आया है.

अरे बुद्धू ! .............
गांधीवाद को तो उनके अनुयाइयों ने ही नहीं अपनाया,
और गांधीगिरी मुन्ना भाई को ही मुबारक हो ....
हम भी प्रगतिशील है - दिल्ली नोयडा घूमकर आये है,
इसलिए हमने गौतम, महाबीर और गांधी का नहीं;
निठारी के सिद्धांत को अपनाया है, और इसके लिए;
पंढेर और कोली को अपना आदर्श बनाया है.

अरे महामूर्ख !!
अब भी नहीं समझी, तू जिसे दूध पिलाना चाहती है;
जिसपर मातृत्व और ममत्व लुटाना चाहती है, वह तो
न जाने कब से.... मेरे गहरे उदर में समाया है.
माँ के गोश्त से स्वादिष्ट गोश्त बच्चे का होता है, यह बात
जंगली जानवर को मानव की नई सभ्यता ने सिखाया है.

कुछ क्षण रुक कर भेड़िया पुन: बोला .....
मत कहो मुझे युवराज और मत कहो मुझे संत.
ये विशेषण हैं इंसानों के लिए, नहीं है उसकी बुद्धि का अंत.
वे मानव हैं - मानवता छोड़ सकते हैं, वादे तोड़ सकते हैं.
स्वधर्म - राजधर्म भूल सकते हैं, दोस्ती तोड़ सकते हैं,
कभी देव, कभी दानव, तो कभी संत-महंथ बन सकते हैं.

हम तो जानवर हैं, पशु हैं, कैसे छोड़ दे - पाशविकता?
फिर भी उनसे अच्छे हैं, जंगली और हिंसक होते हुए भी,
वादे निभाते हैं, पेट भरने के बाद, नहीं करते दूसरा शिकार.
बचा खुचा शिकार औरों के लिए छोड़ जातें हैं. परन्तु देखो
यह इंसान कितना अजीब है, जूठन भी फ्रिज में रखता है,
वह केवल पेट नहीं, फ्रिज और गोदाम भरता है.
कहीं कोई भूखा मरता है तो कहीं अन्न सड़ता है.
सच कहूँ तो मैं भी पहले ऐसा नहीं था ......
मुझे मक्कार तो मानव की नई सभ्यता ने बनाया है.

हमारी संस्कृति इतनी उपेक्षित क्यों हैं?

भारतीय संस्कृति के ध्वज वाहक मित्रो,
विश्वशांति के प्रेरक,प्रकृति के कुशल सहचर,
विश्ववन्धुत्व के संवाहक,मुझ जैसे विप्र के
दर्द को सुनो, कुछ प्रश्न हैं, उनपर गुनों.
हमें कष्ट है की चिंतन के क्षेत्र में इतने,
समृद्धिशाली होते हुए भी,पश्चिमोन्मुख क्यों है?

शून्य और दाशमिक प्रणाली को भारत की देन,
तो अब प्रायः सबने स्वीकार ली है, परन्तु;
क्या आप जानते हैं कि जिस इलेक्ट्रानिक्स और
क्म्पुत्रोनिक्स की आज धूम मची है, जिसका आधार,
पाश्चात्य जगत 'ओम्स ला' को समझता है, वह
हमारे ही भागीरथ सूत्र का पत्वार्तित रूप है?

इन्द्र - वृत्तासुर की लड़ाई को मात्र कथा - कहानी
समझनेवाले, इसके वैज्ञानिक पक्ष से अपरिचित क्यों हैं?
यह तो विशुद्ध रूप से ओजोन परत की समस्या
और उसका सम्यक निदान समाधान है.

आइन्स्टीन और हॉकिंस की देन समझी
जानेवाली 'ब्लैकहोल थियरी' का मूल,
ऋग्वेदीय 'हिरण्यगर्भ सिद्धांत' है.
प्रकाशमिति कहती है - ब्लैकहोल से,
असंभव है - परावर्तन. हाकिंस तो
चुप हो गए, इस सिद्धांत को उलटकर कि,
ब्लैकहोल से भी होता है - परावर्तन.
परन्तु किस रंग की ? इस प्रश्न पर,
वे आज भी मौन हैं,आगे जानने को बेचैन हैं.

उनकी तीक्ष्ण बुद्धि को इस बात का आभास
है कि, इसका उत्तर भारत के ही पास है.
अत्यंत रूग्नावास्था, बीमारी की पराकाष्ठा में भी
उनका भारत आगमन, इसी खोज का
एक प्रयास था शायद, परन्तु न जाने क्योँ ?
हम भारतवासी उससमय आगे बढ़ नहीं पाये, उनकी
क्यों जिज्ञासाओं का शमन कर नहीं पाये ?

यदि ऐसा हुआ होता; हमें वैज्ञानिक अभिव्यक्ति का
एक सशक्त माध्यम मिला होता,और भारतीय-दर्शन का,
परचम पाश्चात्य जगत में लहराया होता ?
यह सत्य है कि इसका उत्तर भारत वर्ष के ही पास है.
यह भारतीय विद्या ही है जो यह उदघोष करती है.
कि ब्लैकहोल का प्रारंभिक रंग काला, मध्य काल में
यह लाल, और अन्तकाल में सुवर्ण है. परन्तु
आज हम अपनी ही विद्या से अनजान क्यों हैं?

संस्कृति के तीन सर्वश्रेष्ठ उपमान जिन्हें हम
ब्रह्मा-विष्णु-महेश के रूप में जानते पहचानते हैं;
उनकी भी परीक्षा लेने वाला कौन है ?
हम सब महर्षि भृगु के वंशज, अनुसुइया के संतान,
इस तथ्य से अबतक अनजान क्यों हैं ?

हम भारतीय कापुरुष तो रहे नहीं कभी, अब
संस्कृति सागर में गोता लगाने से भयभीत क्यों हैं ?
और अमूल्य रत्नगर्भा हमारी संस्कृति
आज इतनी उपेक्षित क्यों हैं? क्यों हैं?