प्रारम्भ में थी केवल निश्चेतना
था अन्धकार-जड़त्व-निष्क्रियता.
प्रेम ही बना प्रथम अभिव्यक्ति.
तब से कर रहा निरंतर ही गति.
प्रेम गति एक दिव्य तरंग है,
गति का उसका अजीब ढंग है.
जड़ को जागृत करने खातिर
जड़त्व अन्दर स्वयं समाया.
सुषुप्त चेतना अलसायी थी,
थपकी दे तन्द्रा दूर भगायी.
रही न जड़ता कहीं व्याप्त
अंतर चेतना उसी ने जगायी.
अतल-वितल की गहराई से
ऊर्ध्वमुखी यह गति करता है.
वृक्ष की जड़ से होकर ही यह
तंतु-पुतन्तु सबको सींचता है.
गति यह करता पत्थरों में भी
परन्तु गति वह धीमी होती.
मानव मन तो अति चंचल
उसकी गति कब धीमी होती?
लता - वल्लरी में गति है
ऊर्ध्व गमन यह आरोहण की.
कारण उसका भी यही प्रेम है
प्रेम - अभीप्सा आरोहण की.
दिन में करके अवरोहण गति
तंतु -पुतन्तु -पत्तों -डाली से.
जड़ तक, फिर यही पहुँचता है
कोश - कोश संतृप्त करता है.
प्रेम गति में तैर, वही फिर
शिखर तक ऊर्ध्व पहुँचता है.
अखिल विश्व में इसी तरह
आरोह-अवरोह क्रम चलता है.
दिव्य तरंग के इस प्रवाह में
मानव मन फिर डूबता है.
जिसकी जितनी है क्षमता
उतनी गागर जल भरता है.
स्व-संवेदना से माप उसी को
सुख और दुःख वह कहता है.
प्रेम तो है, दोनों से अलिप्त
ये दोनों, मन में ही संलिप्त.
अलिप्त-संलिप्त के द्वंद्व में
घिसता-पिसता, मानव मन.
करो अनुभूत इस प्रेम रूप को.
करो बोध! अपने स्वरुप को.
तू जड़ नहीं, एक चेतना है
शरीर नहीं, तू आत्मा है.
चेतना की पराकाष्ठा में
सर्व रूप तू जगदात्मा है.
सार तत्त्व वह, इसी प्रेम का
अभिव्यक्ति जो इसी ऐक्य का.
पड़ गया नाम उसका आनन्द
आत्मात्म ऐक्य ही परमानन्द.
डॉ जयप्रकाश तिवारी