Thursday, August 21, 2014

संस्मरण: कवि का अपराध

मैंने देखा, जंजीरों मे जकड़े हुये स्वयं को
जहाँ चित्रगुप्त रजिस्टर के पृष्ठ पलट रहे थे
उनके चेहरे के भाव क्षण-प्रतिक्षण बदल रहे थे
यमदूतों ने कड़ककर कहा; नीची करो दृष्टि
जबतक फैसला न आ जाय, दृष्टि उठाना पाप है.
चित्रगुप्त ने सिर उठाया, अपना फैसला सुनाया -
इसे ओखली में डाल दो, मुगदर से पिटाई करो
अच्छी तरह मंड़ाई करो’, फिर आरे से दो फाड़ कर दो
             
मैंने पूछा – हुजूर ! अपराध तो बताइये...
अरे अभी..., अभी तो... ऊपरी अदालत शेष है...
मैं कृतान्त के पास जाऊंगा, सारा वृत्तान्त सुनाऊँगा,
जाऊंगा इससे भी आगे, त्रिदेवों की बेंच मे जाऊंगा
अभी अपने इस फैसले पर ... इतना मत इतराइए,
पहले मुझे मेरा दोष तो बताइये ...।

देखो! देखो! यह अब भी जुबान लड़ाता है
कलम नहीं मिली तो शब्द-बाण चलाता है,
अरे यही है... , यही है तुम्हारा अपराध,
तुम्हारा अपराध यह है कि
वर्षों से सोई पड़ी कलम को जगाया,
इतना तो ठीक था किन्तु तुमने
रोशनाई की जगह आग भरी, बारूद भरा
उसे पूरे समाज मे फैलाया ...।

ओह ! कितनी कठिनाइयों से जूझकर 
मदहोश किया था इस समाज को,
उस शिखंडी होते समाज को तूने
पुरुषत्व और अधिकार का पाठ पढ़ाया
उनके जमीर को कोसा, जंजीर को कोसा
तुम्हारे शब्दों ने कहर बरसाया ... 
स्त्री-पुरुष, बूढ़े-बच्चे सबको जगाया,
हमारे दूतों को वहाँ से भागना पड़ा,
हमे भी कायर, रणछोर ... बनाया
अब पूछते हो मेरा अपराध क्या है?

अरे! तुम्ही ने बुलंद किया उनका हौसला
तुमने बदल दिया हमारा सारा फैसला ...
कवि थे, कवि ही रहते तो ठीक था 
सिंगार-वियोग रचते, हास्य रचते तो ठीक था
तुमने मेरे भरेपूरे साम्राज्य मे आग लगाई
शब्दों के तीर चलाये, तर्कों की तोप चलाई
उन तर्कों मे डेकाड्रान की शक्ति थी
मदहोश, अब होश मे आने लगे,
तीर-तरकश, तोप-तलवार उठाने लगे । 

कवि का कर्म चारण-कर्म होता है
प्रशस्तिगान की रचनाधर्मिता छोड़कर
विद्रोही सैनिक की भूमिका निभाई है,
तुम वर्ण-व्यवस्था भंजन के दोषी हो
तुम कर्म-व्यवस्था उल्लंघन के दोषी हो
इसलिए तुम्हारे शिरोच्छेद की सजा सुनाई है।


इस अपमान पर
कवित्व हुंकार उठा .. फूंफकार ...उठा
दहाड़ उठीं संवेदनाएं पूरे ज़ोर-शोर से, 
इतने ज़ोर से कि... आँख खुल गयी
बीवी, बच्चे चौंककर सशंकित खड़े हो गए...
तो तो... क्या यह एक स्वप्न था?
और यह स्वप्न है या हकीकत?
कहानी यह भूत की है या वर्तमान की?
या संकेत है रचनाकारों के भविष्य की?
स्वप्न यह अब बन गया है संस्मरण
नहीं होता कभी भी इसका विस्मरण ॥ 


-    डॉ जयप्रकाश तिवारी