परिचय क्या पूछते हो?
दो कदम साथ चलकर के देखो जरा,
मान जाओगे खुद,जान जाओगे खुद,
एक चिन्तक हूँ मै,काम चिंतन मेरा.
चिन्तक कभी सोता नहीं,
उसकी चिति स्वयं संवेदी होती है,
चिंतन प्रक्रिया स्वप्न में भी विमर्श करती है.
पथ चलते- चलते अपना उत्कर्ष करती है.
मौन में भी यह चिंतन धारा सतत प्रदीप्त है,
यह मौन चिन्तक का हो,या संस्कृति का;
अथवा यह हो ब्लैक होल और प्रकृति का.
यही मौन सृजन का पूर्वार्द्ध है;बाकी उत्तरार्द्ध है.
पूर्वार्ध का चिन्तक उत्तरार्द्ध का कवि है;
कवि की वाणी मौन रह नहीं सकती;
मजबूर है वह; चेतना उसकी मर नहीं सकती.
लेखनी इस पीडा को देर तक सह नहीं सकती.
संवेदना विचार श्रृंखला को; विचार शब्दविन्यास को,
और शब्द विन्यास - अर्थ, भावार्थ, निहितार्थ को
जन्म देते है.ये शब्दमय काव्य, रंगमय चित्र,
आकरमय घट, सतरंगी पट; सभी मौन का प्रस्फुटन है;
उसी मृत्तिका और तंतु का विवर्त है.
संवेदना के इस दर्द को; सृजन के इस मर्म को,
क्या कभी समझेगा यह जमाना ?
ये हृदयहीन लोग कवि की कराह पर,
दिल की करुण आह पर, वाह! वाह!! करते है.
फिर भी हौसला तो देखो; अंडे पड़े या टमाटर,
ये चिन्तक अपनी बात कहने से कब डरते है?
दो कदम साथ चलकर के देखो जरा,
मान जाओगे खुद,जान जाओगे खुद,
एक चिन्तक हूँ मै,काम चिंतन मेरा.
चिन्तक कभी सोता नहीं,
उसकी चिति स्वयं संवेदी होती है,
चिंतन प्रक्रिया स्वप्न में भी विमर्श करती है.
पथ चलते- चलते अपना उत्कर्ष करती है.
मौन में भी यह चिंतन धारा सतत प्रदीप्त है,
यह मौन चिन्तक का हो,या संस्कृति का;
अथवा यह हो ब्लैक होल और प्रकृति का.
यही मौन सृजन का पूर्वार्द्ध है;बाकी उत्तरार्द्ध है.
पूर्वार्ध का चिन्तक उत्तरार्द्ध का कवि है;
कवि की वाणी मौन रह नहीं सकती;
मजबूर है वह; चेतना उसकी मर नहीं सकती.
लेखनी इस पीडा को देर तक सह नहीं सकती.
संवेदना विचार श्रृंखला को; विचार शब्दविन्यास को,
और शब्द विन्यास - अर्थ, भावार्थ, निहितार्थ को
जन्म देते है.ये शब्दमय काव्य, रंगमय चित्र,
आकरमय घट, सतरंगी पट; सभी मौन का प्रस्फुटन है;
उसी मृत्तिका और तंतु का विवर्त है.
संवेदना के इस दर्द को; सृजन के इस मर्म को,
क्या कभी समझेगा यह जमाना ?
ये हृदयहीन लोग कवि की कराह पर,
दिल की करुण आह पर, वाह! वाह!! करते है.
फिर भी हौसला तो देखो; अंडे पड़े या टमाटर,
ये चिन्तक अपनी बात कहने से कब डरते है?