Thursday, August 30, 2012

पीड़ा: नौकर की


नाम का भूखा नहीं हूँ मैं
धन का भी भूखा नहीं हूँ मैं,
लेकिन कैसे मैं यह कह दूँ
इस कोठी में भूखा नहीं हूँ मैं?

प्रकृति की मार को झेल रहा हूँ
तन पर आघात भी झेल रहा हूँ,
मन को मैं कब का मार चुका हूँ
पगड़ी इस सिर की उतार चुका हूँ.

पड़ गए हैं हाथ में, मोटे छाले
ये पाँव बने बिन पिए मतवाले,
संगीत भी लगता बहुत ही रूखा
आखिर कब तक मैं बैठूं भूखा ?

मालिक कहता, अब घर को जा
थक गया है तू अब वापस जा,
मत बोझ बनो, अब दर पर तू
अब घर को जा, घर को जा तू.

जानता मुझे वह अच्छी तरह
चूस लिया जवानी अच्छी तरह,
खेला जज्बातों से अच्छी तरह
आज बतला दी उसने मुझको
मेरी औकात भी, अच्छी तरह.

इस घर में जब मैं आया था
नादान-सा छोटा एक बालक था,
जब बड़ा हुआ आई यह समझ
उस घर में, तब मैं चालक था.

जिन्हें स्कूल छोड़ने जाता था
वे सब बड़े हुये साहब भी हुये,
बूढा मैं भाजी-सब्जी लाता था
इनके बच्चों को टहलता था.

आज जर्जर मेरा तन-मन है
अपना परिवार भी नहीं बसा,
तय क्या थी मेरी पगार?
यह अब तक मैंने ना जाना.

खाना कपडा सब मिलता था
बातों का सुख भी मिलता था,
सोची न कभी अलगाव की बात
आई मन न कभी दुराव की बात.

अब मन में बहुत कुछ आता है
यह समय, बहुत ही चिढाता है,
तब कहता था मैं, छत है क्या?
समझा मैं आज यह छत है क्या?