Wednesday, February 23, 2011

'पूर्णता' का विज्ञानं- दर्शन 


भारतीय संस्कृति में वर्णित उपनिषदिक दर्शन को प्रायः 'पूर्णता का दर्शन'  कहा जाता है. क्या है यह पूर्णता का दर्शन और क्यों कहा जाता है इसे पूर्णता का दर्शन? आइये आज इसे समझने का प्रयास करते हैं. इसके लिए श्वेताश्वर उपनिषद् के एक मन्त्र को यदि हम प्रतिनिधि और बीजमंत्र कर रूप में स्वीकार कर सकें तो यह पूर्णता अपने दिव्य रूप में वहाँ प्रकट होता है, समझने और समझाने दोनों ही दृष्टि से यह उत्तम है.यह मन्त्र है -

'एको देवः सर्वर्भूतेषु गूढः  सर्वव्यापी सर्व भूतान्तरात्मा 
कर्माध्यक्षः सर्व भूताधिवासः साक्षी चेता केवलः निर्गुणश्च'  - (६.११)  

अर्थात, सभी प्राणियों में स्थित ईश्वर एक है, वह सर्व व्यापक. समस्त भूतों का अंतरात्मा, कर्मों का अधिष्ठाता, समस्त प्राणियों में बसा हुआ साक्षी, परम चैतन्य, परम शुद्ध और निर्गुण है. यह तो हुआ इस मन्त्र का शब्दार्थ. परन्तु यह मन्त्र है बहुत रहस्यपूर्ण, ....आइये इसे दूसरे दृष्टिकोण से देखें, संख्याओं में विभाजित कर गणितीय रूप में देखें  -
      १ - एको देवः 
      २ - सर्वर्भूतेषु गूढः  
      ३ - सर्वव्यापी 
      ४ - सर्वभूतान्तरात्मा 
      ५ - कर्माध्यक्षः 
      ६ - सर्व भूताधिवासः 
      ७ - साक्षी 
      ८ - चेता 
      ९ - केवलः 
      १० - निर्गुणश्च

इस मन्त्र में हम देख सकते हैं कि पूरे मन्त्र को '१' से '१०' तक की संख्याओ में आसानी से विभाजित किया जा सकता है. '१' ब्रह्म की एकता का प्रतीक है. '२' उसकी गूढता और जटिलता का, '३' सर्व्यापकता का. '४'  स्व 'अणु' की पहचान के द्वारा 'विभु ', 'विराट' और 'भूमा' स्वरुप को पहचानने की ज्ञानात्मक / सध्नानात्मक दृष्टि है. '५' आस्तिकों और नैतिक व्यक्तित्व वाले का संबल है, उसके न्यायी प्रकृति के कारण ही व्यक्ति सत्य के लिए अपने 'स्व', अपने अहं  को बलिदान करने की प्रेरणा पता है.  '६' वह परमात्मा केवल मानव, केवल चेतन, केवल जड़ तक ही सीमित नहीं है. वह कण -कण  में परिव्याप्त है, यह दृष्टि केवल प्रकृति के साथ भावनात्मक और पारिवारिक सम्बन्ध जो दती है, प्राकृतिक वस्तुओं के साथ मधुर रिश्ते स्थापित करती है, विश्ववन्धुत्व की भावना विकसित करने के लिए यहीं से ऊर्जा मिलती है. यह दृष्टि ग्रह -नक्षत्रो, नदी-पहाड़ से लेकर वनस्पतियों तक से रिश्ते की परिकल्पना की है.  नाम और रूप तो अलग-अलग है परन्तु, परन्तु तत्वतः  नहीं . संतों ने इसीलिए तो गाया है - 'आपे रसिया आप रस, आपे रावनहार / आपे होवे चोलादा आपे सेज भतार // ' ७' वह द्रष्टा है, समदर्शी है, इसी गुणों के कारण वह परमन्यायी है. इस लोक में न्याय न मिल पाने पर भी यह विश्वास भक्त को न्याय पथ से नहीं डिगा सकता क्योकि यह विश्वास दृढ है कि यदि यहाँ न्याय नहीं मिला तो क्या हुआ. वहाँ तो मिलेगा. यदि यह विश्वास टूट जाय तो सोचिये क्या होगा? जब इस देश में कोई कानून को कितना मानता है तो क्या नैतिकता, ईमानदारी, जिम्मेदारी और मानवीय मूल्यों का कोई महत्व रह जाएगा ?  '८' वह परम चैतन्य है, चेतन होने के कारण ही अपने भक्तों की आर्द्र पुकार सुन लेता है,यह गरीबो, और निर्बलों का एक मात्र बल है,...शक्ति है... संबल है..... 
इसी साहस के बल पर एक चींटी भी विशालकाय हठी से लड़ने और उसे परस्त करने का हौसला पता है. यह विश्वास औए आस्था का ही बल है जो अग्निसुरक्षा कवचधारी, वरदान प्राप्त होलिका को तो भस्म कर देता है लेकिन प्रह्लाद का विश्वास विजयी होता है. यह वह श्वास-प्रश्वास है जिसमे लौह का दम्भ भी लाल पानी बन जाता है. उसका ठोसपना, उसका दम्भ सब  गल जाता है.

आज का मानव टुकडे-टुकडे देखने का अभ्यस्त हो गया है समग्रता में वह देख ही नहीं पाता. जिस दिन समग्र दृष्टि आ जायेगी वह विवेकानंद, अरविंदो और  आइन्स्टीन की तरह आध्यात्मिक वैज्ञानिक बन जायेगा. Philosopher of science' बन जाएगा. ईश्वर के स्तित्व को नकारते देखा-सुना गया है परन्तु क्या कोई सत्य को नकार सकता है? सत्य की परिभाषा क्या है? 'परम सत्यम, सत्यम परम' अर्थात जो सत्य है वही परम है और जो परम है वही एक मात्र सत्य है. जो कभी बदले नहीं. परिवर्तित न हो वही तो सत्य है. सत्य ईश्वर का समानार्थी नहीं पर्यायवाची है. आखिर सत्य तो माननेवाला भला ब्रह्म के स्तित्व को कैसे नकार सकता है? आज के युग में ऐसी अलौकिक शक्ति आज केवल राजनीतिक व्यक्ति के पास है. उसे यह अधिकार है क़ि इस 'सत्य' में जब चाहे 'अ' जोड़ दे, जब चाहे 'अ' घटा दे......

अब हम संख्याओं पर लौटते हैं. इन संख्याओं में  एक अंक की सबसे बड़ी संख्या '९' है और यह संख्या 'केवल' है. केवल वही है- दूसरा नहीं. और दसवी संख्या निर्गुण है जिसका गुणन नहीं हो सकता, वह 'शून्य' है. शून्य स्वतः निर्गुण है ऊपर वाले '१' पर इस निर्गुण शून्य को रख देने से '१०' संख्या स्वतः बन जाती है. इस '१०' में सम्मिलित '१' ब्रह्म और आत्मा दोनों का प्रतिधित्व करता है. इसमें '१०' नाम-रूपमय सृष्टि का वाचक है. इस '१' के अभाव में समस्त सृष्टि 'o' शून्य है. मृत है, प्रलायावास्था में है, मूल्यहीन है तथा '१' के साथ रहने पर वही मूल्यवान है, सजीव है. '९' अंक केवल है, पूर्ण है, सम्पूर्ण है. अतएव '९' अंक जहां भी रहता है, अपने 'केवली' स्वरुप का परित्याग कभी नहीं करता. अतः केवल है, अतः केवल वही रहेगा जो वस्तुतः है. तत्त्वतः है, जो 'actual' ' और  'factual' दोनों है . इस परम तत्त्व  को पहचानना होगा और जो इसे पहचानेगा वही ज्ञानी और पंडित कहलायेगा, कोई दूसरा नहीं.  - 'निर्गुण सरगुन आपे सोई, तत पछाड़े सो पंडित होई'....

उदाहराणार्थ :     ९ के गुणनफल का योग सदैव ९ ही होगा.
                         ९ x १ = ९
                         ९ x २ = १८,     (१ + ८ = ९ )
                         ९ x 3 = २७,    (२ + ७ = ९ )
                         ९ x ४ = ३६,     (३ + ६ = ९ )
                         ........................................
इतना ही नहीं योग (+) और घटाव (-) की क्रिया में भी यह ९ अपने स्वरुप का परित्याग कभी नहीं करता. आइये देखें कैसे - 
() -  ९ + ८ + ७ + ६ + ५ + ४ + ३ + २ + १ = ४५ (४ + ५ = ९)

(आ) - ९ ८ ७ ६ ५ ४ ३ २ १           कुल योग = ४५ (४ + ५ = )
  (-)  १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९           कुल योग = ४५ (४ + ५ = )
      ---------------------------
   =  ८ ६ ४ १ ९ ७ ५ ३ २          कुल योग = ४५ (४ + ५ = )
     ................................

अतः कह सकते है:    (९ - ९ = ९) या 
             पूर्ण - पूर्ण = पूर्ण 

इसीलिए उपनिषदों में कहा गया है कि ब्रह्म परमपूर्ण है, वह (अदः) और यह (इदं), 'that' और  'this', 'he' और 'she', दोनों में ही वह इकाई रूप में सामान भाव से है. परमतत्त्व पूर्ण , परिपूर्ण है, सम्पूर्ण है. उस पूर्ण में से पूर्ण को घटाने पर भी सम्पूर्ण ही शेष बचता है. उसमे  रंच  मात्र  भी  न्यूनता  नहीं  आने पाती, इसलिए उपनिषद् कहते हैं - 
.
'ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात पूर्णमुदच्यते 
  पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते'. 

इस दर्शन के अनुसार 'ब्रह्म' आदि में पूर्ण है, मध्य में पूर्ण है और अन्त में पूर्ण है, सभी काल में पूर्ण है. सच तो यह है कि वह काल का भी काल है - 'कालः कालौ' है. काल का भी है, इसीलिए साक्षी है, द्रष्टा है. इस मन्त्र में निर्गुण और सगुण दोनों ही सिद्धांतो का, विचारधाराओं का अद्भुत मेल है. सृष्टि के प्रारम्भ में वह 'ब्रह्म' अकेला था, सृष्टि रचना के बाद भी, सब कुछ अपने अन्दर समेट कर एक '१' रहा भी..., और नहीं भी रहा...., वह अनेक  '१०' बन गया.., जगत बन गया, सृष्टि बन गया. '१ ' विहीन '१०' (जगत) शून्य '०' है. निर्गुण है. एक '१' के साथ सम्मिलित रूप में वही '१०' ...है, सृष्टि है, ...सगुण है. ....परन्तु यह सगुण भी अंततः निर्गुण ही है.... 
       
      (१ + ० = १, अर्थात 'लौकिक जगत सत्य है')    
        
      (१  - ० = १, अर्थात 'पारलौकिक जगत सत्य है') और      
        
     (१ x ० = ०, अर्थात 'जगत असत्य है, आभास है'). 

यही इस 'ब्रह्म' का 'सगुण', 'निर्गुण', और 'सगुण - निर्गुण', उभय रूप का खेल है, वह विलक्षण है, अव्याख्येय और अनिर्वचनीय है, जिसे शब्दों में बाँधने के प्रयास में, गणित के सूत्रों में पिरोने के प्रयत्न में ज्ञानी -ध्यानी, संत-महात्मा और दार्शनिक से लेकर वैज्ञानिक तक सभी अनवरत उलझे हुए हैं..., अपनी-अपनी परिकल्पनाओं... .. व्याख्याओं......और माडलों ......के साथ......'आखड वाले जेतड़े सब आखी रहे लिव लाई ' ........

हमारे विविध पुराण इनमे से केवल दो-चार गुणों को प्रमुख मानकर चलते है ... इसलिए कभी.-.कभी परस्पर विरोधी सा भी जान पड़ते है, परन्तु समग्रता के आलोक में समस्त विरोध स्वतः मिट जाते हैं. अतः समग्रता में जानना चाहिए, यह बोध उपनिषद् कराता है.