Wednesday, June 16, 2010

प्रेम का मनोविज्ञान


प्रेम तो एक 'अनुभूति' है भाई, नाम इसका 'अनुराग' है भाई.
इस अनुराग के रूप अनेक..., देखना चाहो.. देख .लो भाई.


हां प्रेम तो एक अनुराग है भाई, यह अनुराग फिर राग से जुड़ कर,
भाव और समीकरण बदलकर, मूल्य बदलता रहता है, मेरे भाई.


शिशु के साथ है 'वात्सल्य', नाम .इसी ..अनुराग का,
बालक के संग जुड़ जाता जब, 'स्नेह' यही अनुराग है.


साथी के संग जुड़ता है जब, .'.प्रेम' ..यही ..अनुराग है.
ज्येष्ठो के संग है 'अभिवादन', और श्रेष्ठों के संग 'श्रद्धा' है.


मातु - पिता और गुरुजन के संग, 'भक्ति' ..यही अनुराग है.
बन जाता 'समर्पण भाव' यह, जब मंदिर मस्जिद तो जाता है.

'आशीर्वाद' के रूप में सौ-गुणित, मिलता वापस यही अनुराग है,
हो भाव का तेल, विश्वास की बत्ती, फिर तो यह अखंड चिराग है.


वह अनुराग बन जाता देखो, 'दिव्य - धवल - उज्जवल प्रकाश' है.
अब खुला हुआ है अन्तरिक्ष, ....और ...खुला हुआ....आकाश है.

अपनी -अपनी झोली है ये, कौन समेट पाता है कितना?
जितनी बड़ी पात्रता जिसकी, वह समेट पाता है उतना.

दोष नहीं कहीं कुछ इसमें, नहीं कहीं.. कोई ..धब्बा ...है.
करते धूमिल खुद हम इसको, जब होश नहीं सब गड्ढा है.


'नफरत-इर्ष्या', 'राग-द्वेष' सब, नकारात्मक अनुराग की खाई है,
कैसे पाटोगे ..तुम ....इसको.., ...क्या कोई ..युक्ति .....लगाईं ...है?

अनुराग से ही फिर भर सकता यह, चाहे जितनी चौड़ी खाई हो.
फिर तुम चुप क्यों....बैठे मेरे भैया?, क्यों ....अब देर ...लगाईं है .


प्रेम तो एक 'अनुभूति' है भाई, नाम इसका 'अनुराग' है भाई.
इस अनुराग के रूप अनेक..., देखना चाहो.. देख .लो.. ...भाई.