वर्णों से हैं शब्द बने, हर शब्द की अपनी है
रचना
शब्द बात कहते उतना अर्थ निकलता उससे जितना
कभी – कभी कह लेते उतना, भावार्थ और निहितार्थ
मिल कर समीक्षक तक, भाव अपनी पहुचाते जितना
प्रेम की तीव्रता ही संवेदी मन को जज्बाती बना देता है, जिसे
समाज पागल कहने से भी नहीं चूकता. यह समाज जिसे पागलपन और दीवानापन समझता है...
वही तो प्रेम की तीव्र अभीप्सा है. यह खोज भी है और प्यास भी, साथ ही उपलब्धि भी.
नानक – मीरा - रामकृष्ण परमहंस – चैतन्य – ईशा – सुकरात.. - ब्रूनो -आइंस्टीन...
किसको छोड़ा है ज़माने ने, पागल ही तो कहा. पवित्र प्रेम की यही अभीप्सा तलाश करता
है अपनी प्रेमी/प्रेमिका को हर संभावित जगह.. घर में, उपवन में, मंदिर में, नदी
में, नाव में, जंगल में, कन्दरा में, रेगिस्तान में... और एक शहर से दूर दराज के
शहरों को जड़ने वाली ट्रेन में भी. वह भी केवल एकबार नहीं.. कई बार, बार.. आखिर
उसकी आस जो बंधी है, विश्वास की डोर टूटती नहीं. हताशा उसे थकाती नहीं, वह रोज, हररोज
निकल पड़ता है एक नए विश्वास के सहारे,, विश्वास ही बल और संबल है इस प्रेम का.
प्रेम के इस मनोविज्ञान तक युवा की मन की सहज ही पहुच भी है और अभिव्यति भी. तभी आ
पाई है प्रकाश में यह रचना ट्रेन का प्रतीक बन कर – ‘रोज रात / आखिरी डिब्बे पर / सर दे मरता है / लडखडाता हुआ
/ अल्हड पागल’. वह पागल तो है लेकिन उतना
नहीं जितना देखने वाला समाज. इस अल्हड को एक दिन समझ आ जाता है, एक रौशनी मिल जाती
है जो उसे बोध कराती है लोक और परलोक का, विज्ञानं और प्रज्ञान का. तब वही पागल मन
बोल उठता है – ‘मैं जनता हूँ जिंदगी के इस रंमंच पर / न तुम्हारी इच्छा कोई मायने रखती है / और न
मेरी / वैसे ही नाटक में पात्रों का निर्धारण / पात्रों की इच्छा पर नहीं /
निर्देशक की इच्छा पर होता है”. यह संसार एक रंग मंच ही तो है और हम आप सभी एक पात्र. जिसे जो
भूमिका मिली है उसको उसका निर्वहन करना है. महत्वपूर्ण बात यह है कि जो भूमिका
मिली है उसका पूरी निष्ठा, ईमानदारी, समर्पण और पूरे मनोयोग से किया जाय. इसमें
व्यवधान या परिवर्तन कि आवश्यकता नही, क्योकि नियम, कानून और ‘कसमे
/ दीवानों को रोक सकती है दीवानापन नहीं / दीवारें जिस्मों को रोक सकती हैं अहसास
नहीं / समय / मौसम बदल सकता है / प्रेम
नही”. अब इसे
क्या कहा जाय, प्रेम का लक्षण, प्रेम की परिभाषा या उसका स्वरुप?
प्रेम पर प्रतिबन्ध कोई नई बात नहीं है. प्रत्येक काल,
प्रत्येक युग में इसका दमनकारी चक्र चला है. कठिन से कठिन परीक्षा ली है इस
प्रतिबन्ध ने, इस समाज ने. लेकिन प्रेमी तो ठहरा प्रेमी ही, उसे डर कैसा? और उसे
भय क्यों? जिसके लिए प्रेम पूजा की वस्तु बन गई हो तो उसकी प्राप्ति के लिये झिझक
और संकोच कैसा? अन्वेषी मन को ज़माने की प्रतिबन्ध का बोध है. वह अच्छी तरह जनता है
कि मिलन संभव नहीं, दीदार भी शायद ही हो. लेकिन प्रतिबद्धता में कमी नहीं, शिथिलता
नहीं. यदि आना है तो फिर आना है ... भले ही तेरा दीदार हो या न हो – ‘यह जानते हुये भी कि / तुम / नहीं मिलोगी मुझे / फिर भी मैं
आऊंगा तो / और साथ लाऊंगा / अपनी बहुत सारी बेवकूफियां / थोड़े से आंसूं और ढेर
सारा दीवानापन’. प्रेमी का यह दीवानापन का स्वरुप इतना महनीय, इतना पवित्र,
इतना वन्दनीय और नमनीय कि योग और समाधि के उच्चत्तर अवस्था तक परिव्याप्त है, अपनी
पूरी तीव्रता और तन्मयता के साथ. और उसकी साक्षी है यह प्रकृति और उसका प्रतिनिधि
यह गलियां – ये चौबारे, सूरज – चाँद – सितारे. उन घटनाओं को यह ‘चाँद / टकटकी लगाये / देख रहा था / हमारे मोद को / मिलन को
/ प्रेम को / हमारी डूबन को / हमारी समाधि को’. और समाधि में ही तो सहस्रदल
कमल खिलता है, योगी अपने आराध्य का साक्षात्कार करता है. उससे एकाकार हो जाता है- ‘शिव
और शक्ति’ की तरह, ‘राधा और कृष्ण’ की तरह. अब यदि अधर मुह खोले या न खोले, शब्दों से कुछ बोले या न बोले, अनुभूतियाँ तो
मुखर हो उठेंगी. भाव – भंगिमाओं से तो प्रकट हो ही जायेगा, पुलकित रोम-रोम भेद की
बात तो बता ही देंगे – ‘दिन हुये अनगिनत / रातें लंबी
अनन्त / जिंदगी वीरान / हर पल एक विराम / मैं अकेली थी / तेरे बिना / मेरे कृष्ण /
तुम आ आ ही गए / मेरे, सिर्फ मेरे बनकर’.
परन्तु सभी के लिए प्रेम इतना सुलभ कहाँ? समाधि तो दूर, एहसास
और अनुभूति तक मे नहीं. कोरे शब्दों में भी नहीं. अन्वेषी मन इस वास्तविकता को, इस
सच्चाई को स्वीकार करता है तभी तो कह पाता है – ‘इतना आसान कहाँ / शब्दों से जीत पाना / कम से कम / मुझ
जैसे नौसिखिये के लिए तो / बिलकुल भी नहीं / और उस पर तुम्हारा प्यार / देखो तो
इत्ते दिन हुये / हुबह से रात भी हो आई / पर तुम ना आये / शब्दों तक में कहीं’. यह तो विरह की दारुण स्थिति है. भले ही इस विरहिणी मन
को प्रतीक्षा हो पिया मिलन की, लेकिन इसी बहने उसने जान लिया है – प्रेम मिलन की
स्थिति, परिस्थिति, परिभाषा और अभिलाषा को. तभी तो किसी को सचेत करती है – ‘ऐ लड़की! / सच्ची बता
/ तुझे कहीं इश्क तो नहीं हो गया? / इत्ते सारे रंग तो बस / इश्क होने पर ही खिला
करते हैं / महबूब से मिलने पर ही उडा करते हैं / सुन पगली! कब्बी इश्क ना करना /
ना, कब्बी नहीं / वर्ना ये रंग तुझे कहीं का नहीं छोड़ेंगे / पागल तो तू पहले से ही
है / अब क्या मरने का इरादा है?’ सचेत करने वाला यह मन शायद इस बात को नहीं
जनता कि जो प्रेम में पागल न हुआ उसने प्यार किया कहाँ? और जो पागल हो गया हो वह
मरने से कब डरेगा? यह शारीर तो उपादान मात्र है, इसका महत्व ही क्या? और प्रेम
यग्य में यदि आहुति न बन सका तो इसकी उपयोगिता भी क्या? महत्वपूर्ण है तत्व से
तत्व का संयोग.
क्रमशः
डॉ. जय प्रकाश तिवारी
संपर्क – ९४५०८०२२४०
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