अत्यंत हर्ष का विषय है कि प्रज्ञा पुरुष महात्मा बुद्ध पर लिखे पत्र "बुद्ध का पत्र यशोधरा के नाम" पर ब्लॉग मनीषियों की सार गर्भित प्रतिक्रियाएं / समीक्षाएं प्राप्त हुईं, उनमे सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्न था - 'बुद्ध को तो मुक्ति मिल गयी पर यशोधरा की क्या गति? क्या उसे मुक्ति मिली?" इसी प्रकार के कई और प्रश्न थे जिसके समाधान के लिए "बुद्ध का दूसरा पत्र" नामक रचना अस्तित्व में आयी. इस प्रश्न की समीक्षा में भी कुछ प्रश्न उठे जिसमे सर्वाधिक महत्पोर्ण और विचारणीय प्रश्न था - 'क्या संसार से दुःख मिटा? क्या बुद्ध को मुक्ति मिली?'. इस सन्दर्भ में परिचर्चा को आगे बढाते हुए विनम्रता पूर्वक निवेदन है -
हाँ बुद्ध अभी भी बद्ध,
हुए न अब तक मुक्त
नहीं हुआ पूरा संकल्प
इसीलिए हैं अभिशप्त.
दुःख निरोध नहीं आसान,
वैश्विकस्तर से बड़ा है काम
'मैत्रेय' रूप उन्हें आना होगा,
वादा अपना निभाना होगा.
आज की यशोधरा भी कहाँ
कर रही वचनों का निर्वाह?
लौकिक यश के मोह जाल में
फंस नित हो रही है हैरान.
गौतम ने त्यागा राजपाट,
वह संग्रह में राज्य के जुटी हुयी है,
बुद्ध तो चाहते हैं - 'निर्वाण',
वह भोग में आज भी डूबी हुयी है.
जब तक होगा द्वन्द जगत में
और विरोधाभास...,
अनुभूति के स्तर पर,
तब तक दुःख का आभास.
यदि दुःख को जड़ से मिटाना है,
समता आदर्शों में लाना होगा,
आर्यसत्य हैं नहीं असत्य,
उनके तथ्यों को अपनाना होगा.
पहला सत्य, जगत यह दुखमय,
दूजा, इस दुःख का भी कोई कारण है.
कारण का निदान 'अष्टांग योग',
चौथा सत्य दुःख निरोध संभव है.
और इसी का नाम 'निर्वाण' है.
इसे ही अब अपनाना होगा,
जगत से दुःख भगाना होगा.
निर्वाण ही है सत्य अंतिम.
अंततः सबकी है गति अंतिम.
मेरा निजी विचार:
बुद्ध गौरव हैं भारत भूमि के,
वे ऐतिहासिक पुरुष नहीं,
एक "प्राज्ञ पुरुष" हैं,
स्वयं एक इतिहास हैं,
यह सृष्टि उनकी करुणा
का विकास और विलास है.
नहीं हूँ विरोधी बुद्ध का मै,
उनका 'शील' उनकी 'संयम',
उनकी 'वेदना' उनकी ' प्रज्ञा',
उनका 'बोध' उनकी 'समाधि',
बहुत - बहुत प्रिय है मुझे.
उनके 'चार आर्य सत्य''
उनका 'अष्टांग योग',
उपयोगी ही नहीं....
अनिवार्य तत्व हैं ..
मानवता की स्थापना के लिए.
गंभीर अध्ययन किया है
उनके 'जीवन यान' का..,
'हीनयान' और 'महायान' का भी.
खूब पढ़ा है - 'बोधि सत्व' को,
और नागार्जुन के 'शून्यवाद' को भी.
फिर भी क्यों...? आखिर क्यों..?
सहमत नहीं हूँ मैं, उनके प्रयाण से ...
उनकी परिकल्पना के 'निर्वाण' से...
जीवन तो एक उल्लास है,
इसमें शांति की सहज प्यास है.
.'निर्वाण' तो एक आभास है,
और 'लौ' तो स्वयं प्रकाश है.
कितने वे लगते हैं अच्छे,
जब कहते - "आप्पो दीपो भव".
जब चर्चा करते "बुझ जाने की"
तब विल्कुल बच्चे लगते हैं.
पूछता हूँ स्वयं से एक प्रश्न,
बार - बार फिर बारम्बार,
प्रत्युत्तर में कहीं दूर अन्तः से,
आती है एक स्पष्ट आवाज:
नहीं चाहिए मुझे 'प्रयाण',
यदि अर्थ है इसका बुझ जाना.
मैंने केवल 'लौ' को जाना.
आंधी और तूफ़ान में देखो,
'लौ' को खूब लहराए दीपक,
बुझने से पहले भी देखो;
सौ - सौ दीप जलाये दीपक.
मुझको यह दीपक है प्यारा,
प्यारा इसका जलते रहना.
इस जलते दीपक की खातिर,
जन्म - मृत्यु सब कुछ है सहना.