वैचारिक, ऐतिहासिक, दार्शनिक पृष्ठभूमि, और
मनोवैज्ञानिक परिवेश में एकबार पुनः लौटते हैं आलोच्य पुस्तक नारी-विमर्श के
अर्थ’ पर. मानने
वालों ने नारी को पुरुष से चार कदम आगे माना और कहनेवालों ने कहा– ‘नर से नारी, दो दो मात्राओं में भारी’. इसलिए नारी-विमर्श पर विचार
करते समय जो पहला प्रश्न मन में उठता और कौधता है, वह यही है –‘नर से जो द्विगुणित है नारी / वह नारी
क्यों आज है हारी? / शक्ति स्रोत है नाभि में जिसके / आखिर उसकी क्या लाचारी?’ इस प्रश्न के उत्तर में इस पुस्तक में कई तर्क
(और कुतर्क भी) हैं. नारी साहस और सहनशीलता के क्षेत्र में भी अपना उदहारण स्वयं
आप ही है, लेकिन फिर भी कठघरे में है – ‘खाने को वह गम खाती है, और पी जाती सब खारा पानी. फिर भी
जाए छलक कभी तो, खुद को कठघरे में पाती’. और यह अभिव्यक्ति भी सत्य है की सितम इतना कि – ‘हर रात उसकी
उम्मीदों पर / टूटी उम्मीदों का कफ़न चढ़ा / उनका अग्नि संस्कार कर / आँखों के
गंगाजल से / खुद को शुद्ध करती है.” लेकिन वह निष्प्राण नहीं है, ताबूत वह नहीं है. आखिर
हो भी कैसे सकती? वह तो प्रकृति की सवश्रेष्ठ रचना मानव की ‘माँ’ है, ‘माँ’. इस नाते सर्वश्रेष्ठा है...
प्रकृति का अपना ही जीता-जगता स्वरुप है वह. भावनाओं–संवेदनाओं का विविध आयाम है.
संवेदनाओ के ये अयाम ही यदि उसकी शक्ति है तो तो उसकी कमजोरी भी. गांधारी का
प्रतीक लेकर शब्दों की कुशल चितेरी वंदना गुप्ता जी ने इसे बहुत ही ओजस्वी,
तर्कपूर्ण, शब्दावली में प्रस्तुत कर अपनी अनोखी शैली से कथ्य – तथ्य और साहित्य को समृद्ध किया
है. नारी की पहचान उसकी ममता, धैर्यता और मर्यादा से है. मगर ‘दुःख की बात तो
यही है कि यह पहचान बनाकर भी स्त्री कमजोर है.... उनको अपनी इज्जत प्यारी लगाती है
और वे सरे अन्याय सह लेती है.” नारी की सशक्त बनाने के लिए ममता को छोड़, समता को
अंगीकार करना पड़ेगा. क्योंकि ममता की आड़ में ही कहीं न कहीं विकृतियाँ अपने लिए
स्थान, फलने-फूलने का अवसर ढूंढ ही लेती हैं. तभी तो – ‘गृह अन्दर नारी का शासन है / पर घर–घर एक दुशासन
है / दुशासन तो घर में ही पलता / माँ आखिर उसको देख न पाती./.. कहती वह जिसको लाल लाल / वही करता नारी को हलाल / यह नारी के लाल की करनी है / नारी का शव ये
लोथड़े लाल”. इसके
बाद तो मुह से यही निकालता है – ‘नारी तुम हारने लगी हो / इश्वर ने तुम्हे अबला
नहीं / सृजन ही बनाया था / तुम यह कैसी कुसस्कारी / खर पतवार का सर्जन करने लगी
हो? नारी
को पालन-पोषण के समय मोह-ममता रूपी ऐनक को, आँखों पर बंधी पट्टी को उतरना होगा,
मोह ममता की यह पट्टी क्या गांधारी की देन है? रचनाकार तो यही कहता है – ‘.. तुम्हारी दर्शायी राह ने / न जाने
कितनी आँखों पर पट्टी बंधवा दी / देख तो जरा / हर गांधारी ने आंख पर पट्टी बाँध /
सिर्फ तुम्हारा अनुसरण किया / दोषी हो तुम स्त्री की सम्पूर्ण जाति का’. इसी पट्टी को खोलकर, खुले
मन से सोचना होगा, आखिर माँ की शिक्षा पुत्री और पुत्र के लिए अलग-अलग कैसे हो जाती
है – ‘जब एक माँ अपनी / बेटी के दुपट्टे में इज्जत /
संभालने का तरीका / समझाती है वह तो वह अपने बेटे को / राह चलती किसी की / बेटी की
इज्जत करना / क्यों नहीं सिखाती?’‘ कोई भी माँ ऐसी कुकर्मी औलाद नहीं चाहती, यह सच है लेकिन
मोह-ममता में पड़कर कठोर कदम भी तो वह नहीं उठाती. ममता को त्यागकर समत्व का, समता
का अमृत उसे छकना होगा. समत्व की प्राप्ति कठिन तप की उपलब्धि है.
तप के इस महत्व को भी इसी पुस्तक में बताया गया है –‘जो तप करता है / परिवर्तन वही कर पाता है / और यह
इश्वर के तप का प्रभाव है / कि उसने नारी की कोमलता में / तप का संधान किया / फिर
क्या प्रश्न / और किससे?’ लेकिन बदलते परिवेश में आज प्रश्न है- दिशा निर्धारण का प्रश्न. आन्दोलन की गलत दिशा को सही
दिशा में मोड़ना भी एक तप है. धारा (आन्दोलन) की दिशा उलट कर उसे ‘राधा’ रूप में रूपांतरण बहुत बड़ा तप
है, कठोर साधना है. नारी का राधा बनकर पुरुष के साथ ‘राधा-कान्हा’ का सह-अस्तित्व ही एक श्रेष्ठ
समाधान हो सकता है. इस स्थिति में समाज ‘अर्द्ध-नारीश्वर’ की सर्वोच्च सोपान को भी स्पर्श करने की प्रत्याशा तो कर
ही सकता है, जिसमे तत्सुखेन सुखिनः का स्थयी भाव है. अर्द्धनारीश्वर की मनसा-वाचा-कर्मणा
व्यवहारिक स्वीकारोक्ति ही सर्वोपयोगी समाधान हो सकता है. लेकिन ध्यान रहे यह
व्यवहारिक हो, मात्र सैद्धांतिक नहीं. क्योकि सैद्धानित्क स्वीकृति की परिणति क्या
हो सकती है, इतिहास इसका साक्षी है. कई विचारकों ने इस प्रकार की संस्तुति दी है
और कुछ ने थोड़े परिवर्तन के साथ – “हम वर्क फ़ोर्स में अपनी मौजूदगी और आर्थिक
स्वावलंबन के रास्ते हासिल होने वाले सशक्तिकरण को लेकर चाहे कितने नारे क्यों न
लगा लें, नारी विमर्श का एक बड़ा फैसला बिना समाज और पुरुषों की मानसिकता बदले लिया
ही नहीं जा सकता”. निश्चित रूप से आवश्यकता एक पूर्ण समीक्षा की ही है.
एक ऐसी समीक्षा जो ‘स्त्री’ और ‘पुरुष’ के भेद से ऊपर उठकर मानवतावादी
विमर्श को जन्म दे सके: जहाँ ‘स्त्री’ और ‘पुरुष’ के अधिकार और भागीदारी बराबर की हो. यहाँ भी समत्व और समता
की आवश्यकता है क्योकि शोषण न तो लिंग भेद को पहचानती है, न रूप और रंग को मानती
है. जो भी कमजोर है, वही शोषित है, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, सवर्ण हो या दलित.
अभी पिछले सप्ताह ल.वि.वि.लखनऊ में आयोजित एक सेमिनार में प्रख्यात ओडिसी
साहित्यकार प्रतिभा राय ने कहा –‘’स्त्रीविमर्श’ और ‘दलितविमर्श’ जैसे
दायरों के मैं सख्त खिलाफ हूँ. कई बार मुझे महिलावादी लेखक कहा जाता है लेकिन मैं
रेडिकल फेमिनिस्ट, अतिवादी महिला लेखक नहीं हूँ”. परिवर्तन यदि प्रगति का
सूचक है तो समाज को भी अपनी सोच में परिवर्तन लाना होगा. सामाजिक सोच बदल रही है,
रचनाकारों ने इसे रेखांकित किया है, अनुभोत किया है –‘कुछ समाज बदला
, कुछ समाज के जरूरतों के हिसाब से नीतियाँ बदलीं.. तो महिलाओं के लिए काम करना
आसन हुआ’. यह
क्या है? यह खुला दृष्टिकोण है जिसके मूल में है सामंजस्य. स्वतन्त्रता आवश्यक है
लेकिन जागरूकता के अभाव में कब यह स्वच्छंदता बन जाती है पता ही नहीं लगता.
धीरे-धीरे यही स्वच्छंदता अनैतिकता, पाप और दुराचार बन जाती है. अतएव जितनी आवश्यक
यह स्वतन्त्रता है, उतना ही आवश्यक बंधन भी है.
जहाँ तक ‘नारी विमर्श के अर्थ’ नामक ग्रन्थ की बात है, विचारकों ने नारी को उपेक्षित करने, अमानवीय व्यवहार और अन्याय के प्रति
तीव्र आक्रोश तो है, लेकिन उसकी व्याख्या, मूल्यांकन, सुझाव, समाधान सब कुछ भारतीय
परम्परानुरूप ही है. कहीं भी सामाजिक मूल्यों, विवाह संस्था अथवा संविधानिक
मर्यादा के विरुद्ध कोई बात नहीं है. संवैधानिक सीमा में रहते हुए सामाजिक विकृति
मिटाने का प्रयास और सुझाव सर्वथा सराहनीय और स्वागत योग्य है. समाज में जाग्रति
आई है, वह भी अब पहले जैसा अंधविश्वासी नहीं रहा, लेकिन भौतिकवादी अवश्य हो गया है
जहाँ संवेदनाओं का कोई मूल्य नहीं, वेदनाओं के प्रति लगाव नहीं, वहां धन ही
सर्वोपरि बन गया है. आज मानवीय मूल्यों को खतरा इसी विचारधारा से है. इस पुस्तक
में एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह भी उठा है की औरत सामाजिक स्तर पर अपनी अत्म्गतता
कहाँ खोती गयी और वस्तुगतता में कब और क्यों रूपांतरित हो गयी? क्या औरत का
वस्तुगत होना इंसानियत का पतन था? महाभारत काल में द्रौपदी ने यही प्रश्न उठाया
था. इसी के साथ जुडा हुआ प्रश्न है – “औरत की चेतना सिर्फ अपने आप को भोग्य बना
देने तक सीमित है या वैश्वीकरण के चपेटे में बहकर बिक जाना उसके विकास की चरम
स्थिति है? या यह कोई विकल्प है? इसका इसका उत्तर देते हुए विचारक ने कहा है कि “आज औरत अपने
सौन्दर्य को भूल गयी है.और वाह्य सौन्दर्य के चपेटे में आकर, महज वस्तु बनकर रह
गयी है. आतंरिक सौन्दर्य के स्तरपर औरत महाशक्ति और प्रेम से भरी है. यहाँ उसे
सुरक्षा की आवश्यकता नहीं, पर भौतिकवाद की उत्पत्ति के साथ-साथ औरत की आतंरिक
शक्ति कहीं दब सी गयी. आज वह अपने अस्तित्व को तलासते हुए न जाने कितने तरह की
योद्धा खुद को घोषित कर बैठी है” परन्तु यहाँ वह भूल कर रही है. यह लड़ाई अकेले नहीं
लड़ी जा सकती, और न अकेले जीती ही जा सकती है.यह सामाजिक विकृति है, सामाजिक बुराई
समाज के अवयवों को साथ लेकर ही लड़ी जानी चाहिए, और इस स्थिति में नारी को पुरुष का
साथ लेना ही पड़ेगा. सह-अस्तित्व ही मानवीय मूल्यों की रक्षा कर सकता है. इस मानवीय
मूल्य में ही ‘स्त्री’ और ‘पुरुष’ दोनों की गरिमा और महिमा
सुरक्षित रह पायेगी. इस ग्रन्थ का निहितार्थ मानवीय मूल्यों की सुरक्षा और संरक्षा
ही है. मानवीय संवेदनाओं का विकास ‘स्त्री’ और ‘पुरुष’ दोनों में ही होना चाहिए, यदि यह एकांगी हो जाय तो सामाजिक
प्रगति रुक जाएगी.
नारी विमर्श-यज्ञ में
एक आहुति मेरी भी –
महर्षि अरविन्द ने अपने दर्शन में मानव से अतिमानव
(सुपरमैन) के रूप में विकासवाद की संस्थापना की है. इस दर्शन के अनुसार मानवीय
चेतना क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म की और प्रवाहित है, इस धाराप्रवाह में प्रत्येक
मानव को एक न एक दिन सुपरमैन बन जाना है. अंतर केवल इतना है कि जो साधक इस दिशा
में थोडा प्रयास करेगा उसकी विकासगति बढ़ जाएगी और वह अपेक्षाकृत कम समय में ही लक्ष्य
की प्राप्ति कर लेगा. विकासवाद के इसीक्रम में वैश्विकस्तर पर गोपिकाओं के बीच
राधा बनने की प्रक्रिया जरी है. राधा आज कान्धा के संग यमुना तीर, फव्वारा पार्क,
कदम्ब कानन में कान्हा के रंग में रंगी कभी भी दिख जाएगी. वह कान्हा का वैशभूषा तो
धारण कर ही रही है. . निरंतर आगे बढ़ ही रही है. लेकिन तब द्वापर में राधा से एक
चूक हो गयी थी और उसी चूक के कारण राधा-कान्धा का परिणय नहीं हो सका था. वह चूक
थी, राधा द्वारा कान्धा की मुरली को होठों पर लगाने से मना कर दिया जाना– ‘या मुरली मुरलीधर की अधरा न धरी अधरा न धरौंगी’. और जीवन में वह क्षण कभी नहीं
आया. विवाह में एक परंपरा है- परिणयोपरांत एक ही चम्मच से वर-वधू दोनों को दधिपान
कराया जाने की. यह जूठन समस्त भेदभावों को, आग्रह-दुराग्रह को मिटाकर उन्हें एक कर
देता है. राधा ने सबकुछ किया, बस मुरली को होठ से न लगाना भरी पड गया. पाश्चात्य
देशों में तो नकार की यह परंपरा, विवाह से नकार के रूप में प्रारंभ हो चुकी है.
नक़ल की यह परंपरा हमारे देश में भी न प्रारंभ हो जाय, जनमानस को इसके प्रति सचेत
रहना होगा. विवाह का दधि-चम्मच कितना महत्वपूर्ण है, इसकेलिए इसका संकेतन ही
पर्याप्त है. इसलिए राधा से कहना है कि अब जब कभी मुरली चुराना तो होठों से जरूर
लगाना और फिर चैन की वंशी बजाना. तब आन्दोलन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी. तब गोकुल भी
तुम्हारा, मथुरा भी तुम्हार और द्वारिका भी तुम्हारी... ‘आई ऍम माई फ्रीडम’ कहकर विचारधारा और साहित्य में
स्वतंत्रता की पुरजोर वकालत करनेवाले ज्यांपाल सार्त्र को, सिमोन की
अतिस्वतन्त्रता की मांग के कारण साथ छोड़ना पड़ा था. स्वयं को क्रन्तिकारी विचारधारा
की कहने वाली नारी से अनुरोध है कि अपने आदर्श की इस परिणति को भी अवश्य ध्यान में
रखे.
निष्कर्ष रूप में हम दावे के साथ कह सकते हैं कि इस
नारी विमर्श-यज्ञ में दार्शनिक और सामजिक समिधाओं की आहुतियाँ हैं तो राजनितिक और
आर्थिक समिधाओं की आहुति भी है. इसमें वैज्ञानिक विचारधारा की समिधाएँ भी अकाट्य
तर्कों से सुसज्जित होकर अर्पित-समर्पित है, वहीँ मानवतावादी भी हैं जो मनुष्य के
पुरुषवादी और स्त्रीवादी विमर्श के विपरीत मनावात्वादी विमर्श को मानती है. आशा की
जनि चाहिए कि ‘नारी
विमर्श के अर्थ’ रुपी
यज्ञाग्नि-धूम्र सामाजिक वातावरण को शोधित
करेगा. समाज के भेद परक चिंतन-दमन-घृणा-हिंसा और बलात्कार जैसे घृणित कृत्यों पर
विमर्श और रोक लगाने को अभिप्रेरित करेगा. चिंतन में प्रखरता-स्पष्टता-ओज-तेज-तेवर
और उपादेयता के कारण यह कृति न केवल भटके हुय्र किशोर-किशोरियों और नागरिकों को एक
नवीन चेतना-दिशा-दृष्टि देगा, अपितु राजनीति के पुरोधाओं और सामाजिक–अध्यात्मिक मनीषा को भी मनन-मंथन
का सुअवसर देगा, ऐसा मेरा मानना है.
इसमें कोई संदेह नहीं कि यह एक संग्रहणीय और उपयोगी
पुस्तक है, इसमें परिवार के सभी सदस्यों के लिए कुछ न कुछ अवश्य है, और जो है वह
सृजनात्मक है. इसे इसे दादा-दादी के साथ बैठकर माँ-बाप की उपस्थीति में
पोते-पोतियाँ भी चर्चा कर सकते है जो उनके भावी जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है. सभी
रचनाकारों के साथ-साथ संपादक और प्रकाशक का भी आभार. उनका विशेष आभार जो इतनी देर
से मेरी बक-बक सुनते रहे, पढ़ते रहे खामोश होकर ध्यानपूर्वक ...