Saturday, April 14, 2012

रचना शीर्षकों का ध्वन्यार्थ

                  
मै हूँ ऐसा दीप जो सतत स्नेह में जलता रहा.
लेकिन मेरी पहचान इस रूप में नहीं हो सकी.

सोचा चलो दीवाली अबकी कुछ यूँ मनाते हैं.
स्नेह की फुलझड़ी से ही असमंजस जलाते हैं.

क्यों आवश्यक है यह परिचर्चा यहाँ इस मंच पर?
वे अच्छी तरह जानते हैं कि वेदना हिंदी की क्या है?

हिंदी है एक पूरी संस्कृति, इसको स्वीकार तो करते हैं,
लेकिन क्या कहूँ, त्रिभुज का वीभत्स कोण तो यही है,

वह चिल्लाती है- 'हिंद की बेटी हूँ मै'. परन्तु ये मानते कहाँ?
कल तक थी जो अपराजिता, आज वह हिंदी अपनी हार गयी.

खेल यह शब्द और अर्थ का नहीं, खेल है कुत्सित राजनीति का.
यह हार नहीं हिंदी की हार, यह तो है राष्ट्रीय अस्मिता की हार.

                                                                 
                                    - डॉ. जयप्रकाश तिवारी
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