Monday, April 1, 2013

काव्यसंग्रह पगडंडियाँ: आधारभूमि और लक्ष्यविन्दु

                                              
मननशील मन जब सत्य और समाज के विभिन्न आयामों से परिचित होता है तब वह परिचय और उसकी प्रतिक्रया ही शब्दों का आवरण ओढकर कथन और कलम द्वारा एक विशिष्ट स्वरुप ग्रहण करती है. लाक्षणिक भाषा में ये विशिष्ट उदगार ही पगडंडियाँ हैं. किसी पगडण्डी का प्रवर्तक तो उसका रचनाकार ही होता है लेकिन जब उसके अनुयायी अनेक हो जातें हैं और धरती पर अपने पगचिह्नों की लकीर छोड़ते हैं, तब वह एकल न होकर पगडंडी बन जाती है. पगडण्डी ही कालांतर में पुष्टपरिपुष्ट होकर, व्यावहारिक रूप से पालित-पोषित होकर एक दिन खडंजा, डामर, कंक्रीटपथ और राजपथ भी बन जाया करती है. इस काव्य-संग्रह में संकलित २८ युवा रचनाकारों में से अनेक रचनाएँ मन और ह्रदय के प्रकोष्ठ से निकलकर चौड़ीसड़क, विस्तृतपथ की आशा जगती हैं. विशेषरूप से वे रचनाएं जो किसी न किसी दार्शनिक आधार, वैज्ञानिक सोच अथवा लोकमंगल की भावना से ओतप्रोत हैं, भले ही उनके शब्द और स्वर, भाव और भंगिमा कुछ कठोर ही क्यों न हो गए हों. ध्यान रहे लोकलुभावानी शब्दों वाली पगडंडियाँ मंरेगा मार्ग की तरह होती हैं जो बाढ़ की कौन कहे बरसात भी नहीं झेल पाती हैं. लेकिन लोकमंगल पथ डामर और कंक्रीट से बने होते हैं तभी आधारपथ बन पाते हैं; जिनसे कई नई पगडंडियाँ निकलती भी हैं और जुडती भी हैं. ये पगडंडियाँ ही सांस्कृतिक चेतना का, आर्थिक समृद्धि का  नैतिकतादायित्व और कर्त्तव्यबोध का पथ प्रसस्त करती हैं जो किसी भी सभ्य समाज के लिए अनिवार्य तत्व माने जाते हैं.

सैद्धांतिक अभिव्यक्ति मष्तिष्क-प्रसूता होने के कारण जहाँ शुष्क और जटिल होते हैं, वहीँ काव्य ह्रदय-प्रसूता होने के कारण सरस और सरस होने के साथ-साथ रोचक भी होता है. यद्यपि दोनों ही प्रकार की अभिव्यक्तियाँ प्रखर चिंतन की देन हैं, लेकिन जो मष्तिष्क का चिंतन है वह दर्शन है, विज्ञान है, गणित है और जो ह्रदय का चिंतन है, वह कविता है. इस तथ्य पर विचार करते हुए मेरी लेखनी ने इसके अंतर को और भी स्पस्ट करते हुए लिखा है –”“....जो चिंतन है वह दर्शन है / अभिव्यक्ति है जो वह कविता है / दर्शन है विधा एक ज्ञान की / इसकी दशा निराली है / कविता है हमें मार्ग दिखाती / भावों में अभिव्यक्ति कराती / होता फिर गूढ़ सत्य अनावृत्त / जो है त्रिभुज वही वर्ग और वृत्त / बिना अभिव्यक्ति हम रुक नहीं पाते / यह मानव की अपनी प्रवृत्ति. इन पगडंडियों में इसी कथन का व्यावहारिक रूप दृष्टिगत होता है. इस मानवीय प्रवृत्ति के कारण ही यह रचनाकार सीधे सृष्टिकर्ता से (प्रकारांतर से शासक वर्ग से) बिना लागलपेट के प्रश्न करता है ओ क्षितिज पर रहनेवाले देख क्या हाल तेरी क्षिति का है आज? वहीँ प्रशासन से पूछता है ऐ भाष्कर सुन रहे हो.... साथ ही साथ समाज से भी दो टूक शब्दों में पूछता है –“शांति सभी को प्यारी है, क्यों दहसत की चिंगारी है?. लेकिन यह पगडंडी ही है जो इसका रहस्योद्घाटन भी करती है, उसकी सटीक नजर और पारखी दृष्टि से कुछ भी छिप नहीं पाता. वह डंके की चोट पर कहती है कि नफ़रत की यह चिंगारी आखी बुझे तो बुझे कैसे? क्योकि थम गया दंगा क़त्ल हुआ आवाम का / आ गए घर जलानेवाले हाथ में मरहम लिए. ऐसे ही अनेकानेक प्रश्न, जिज्ञासा और समाधान, कोरी बाल जिज्ञासा नहीं है. ये सशक्तं मन की अभिव्यक्तियाँ हैं. कहीं हमें बच्चा न मान लिया जाय इसलिए रचनाकार अपनी बैटन पर बल देने के लिए स्पष्ट करता है –“ मैया मैं बड़ा हो गया हूँ इसलिए बता रहा हूँ..... समाज का जो वर्ग अभी भी अर्द्धनिद्रा में है वह जगे, आलस्य दूर करे और अनुसरण करे अपनी मनपसन्द पगडण्डी का. जिंदगी के तमाम उतार-चढ़ाव से जूझने का मन्त्र भी है इसमें और हौसला भी – “ जिंदगी तुझे सहते सहते जीना हमने सीख लिया है / जब तक तुम रुला पाती हँसना हमने सीख लिया है / ... कौन कहता है कि ठुकराए हुए की कद्र नहीं होती है / हमसे पूछो, जिंदगी उसके बाद ही तो शुरू होती है. कहना न होगा कितनी बड़ी आशा, कितना बड़ा साहस, ऊर्जा और सामर्थ्य भरा है इस अभिव्यक्ति में. अशांति दूर होगी और शांति मिलेगी, ऐसा सबल आश्वासन इन पगडंडियों से मिलता है. पथ यदि सरल भी हो, चिकना और चौड़ा भी हो लेकिन पथिक को प्रेरणा और उत्साह न मिले तो वह निरर्थक ही है, महत्वपूर्ण है प्रेरणा शक्ति. अतिरिक्त साहस और संबल जो बच्चों के साथ साथ बूढों के लिए भी समान रूप से उपयोगी हो.

इस प्रकार इन रचनाओं में जीवन के विभिन्न रंग-रूप हैं, रुढिवादिता के प्रति जहाँ प्रखर क्षोभ विद्रोह और प्रतिक्रिया है; वहीँ प्रगतिशीलता को प्रबल समर्थन भी. इस संग्रह में जहाँ विज्ञानं है, तर्क है, वहीँ आध्यात्मिकता नैतिकता और पौराणिकता का पूत भी है. इन पग डंडियों का शिखर विन्दु एक ही है –‘लोकमंगल. भू की परिधि से ये पगडंडियाँ फूटतीं हैं और आड़े-तिरछे रास्ते, अवरोधों को पार करती हुयी केंद्र तक जा पहुचती है. इनमे बाँकपना है, गिले-शिकवे हैं, उतार-चढ़ाव-घुमाव है. इसीलिए तो काव्यरूप में हैं. यदि ये सीधी होतीं तो गणित होती और तब इनकी संज्ञा पगडंडी नहीं, त्रिज्या होती. अध्यात्म, पंथ और पथ: इन पद डंडियों से विस्तार पता है और और विज्ञानं त्रिज्या तथा जीवा से.

वास्तवमें ये पगडंडियाँ  काव्य-ह्रदय का उच्छ्वास हैं, विकासशील हैं और इनमे भी विस्तृतपथ और राजपथ वही बन पाएंगी जिनमे मस्तिष्क की सीमेंट, तर्क की गिट्टी पड़ी हो और जबतक उसपर व्यावहारिकता की रोलर नहीं चलेगी तबतक न तो वह पैदल चलने वालों के लिए सुगम होगी और नहीं मोटर वाहनों के लिए. इतना तो निर्विवाद सत्य है कि ये कविताये हमें झकझोरती हैं, मनन-मंथन और अनुगमन के लिए प्रेरित भी करती हैं. यदि ये कवितायें समाज की प्रतिगामी सोच को बदलने की शुरुआत भी क्र सकें तो यही इनकी सफलता और सार्थकता होगी. कई रचनाओं में यह सामर्थ्य भी है और क्षमता भी. लेकिन गतिशील तो समाज को होना है. रूचि के अनुसार व्यक्ति, परिवार और समाज यदि इसे स्वीकार करे तो वह कल्याणकारी ही होगा, ऐसा विश्वास किया जाना चाहिए. शहरों जैसी चौड़ी सडक न पाने पर भी पग डंडियों का महत्व कम नहीं हो जाता.  बहुसंख्यक आबादी को सड़क से घर तक, घर से खेतखलिहान-नहर नदी तक, प्राथमिक विद्यालय से प्राथमिक चिकित्सालय तक जो पहुचती हैं हमें, आपको, नन्हे-मुन्नों को: वे पगडंडियाँ ही तो हैं.

हिदयुग्म द्वारा प्रकाशित और अंजु रंजु मुकेश की त्रिमूर्ति द्वारा सम्पादित यह साझा काव्यसंग्रह पगडंडियाँ निश्चय ही उपयोगी और संगह्नीय कृति है. वैयक्तिकता और सामाजिकता को आधार बनाकर रची गयी इस काव्यसंग्रह की भाषा और काव्य-शिल्प पर विचार करना बहुत महत्वपूर्ण नहीं रह जाता. हिंदी भाषा से इतर अन्य भाषिक शब्दों को स्थान देने से हिंदी साहित्य समृद्ध ही हो रहा है, ऐसा मेरा मानना है. हाँ, ग्राह्यता के लिए अत्यधिक उतावलापन उचित नहीं, मांग के अनुरूप प्रयोग को ही उचित कहा जा सकता है. हमरी शुभकामनायें, मंगलकामनाएं सभी के साथ हैं....
                                                                                                         

                                                                                           - Dr. Jai Prakash Tiwari