‘हिंदी दिवस’ के अवसर पर इस वर्ष स्वर्गलोक में
भी साहित्यिक चर्चा-परिचर्चा का आयोजन किया गया. हिंदी साहित्य की गद्य विधा को
घिस-घिस कर चमकाने वाले आचार्य महावीर प्रसाद दिवेदी जी ने संयोजकत्व का
दायित्व स्वर्गलोक में भी कुशलता से निभाया. मैंने देखा कई स्व-नामधन्य चिन्तक,
साहित्यकार और समीक्षक बैठे थे वहाँ, कुछ मंच पर और बहुत से गोष्ठी की अग्रिम पँक्तियो
में. राजनीतिक समीक्षक होने पर घोर अफ़सोस मुझे उस समय हुआ जब मैं इस आयोजन स्थल पर
देर से पहुँचा. भारतीय नेताओं के सानिध्य और प्रभामंडल में होने के कारण सम्मेलनों
में देर से पहुचने की आदत सी अब बन चुकी थी, मुझे सुखद हैरानी हुई कि कार्यक्रम
अपने ठीक निर्धारित समय पर प्रारम्भ हो चुका था और इस समय अपने पूरे उत्कर्ष पर
था. मैं तो यह भूल ही गया था कि यह ‘साहित्यिक विचारगोष्ठी’ है, कोई राजनितिक सभा नहीं.
मुझे साहित्यिक पत्रकार के रूप में ही आमंत्रित भी किया गया था, लेकिन कहते हैं न
कि आदत जो एकबार बिगड जाय, तो बदलने में समय लेती है. साहित्यिक रूचि-रुझान के
कारण अपने को कोसता हुआ, कुछ अधीर और निराश सा होकर घुटन और घबराहट में ही इन
गूढ़-गंभीर साहित्यिक बातों को लिपिबद्ध करने में जुट गया. निराला, प्रसाद, महादेवी,
गुप्त जी और दिनकर जी जैसे बड़े
साहित्यकारों / समीक्षकों को न सुन पाने का दर्द मुझे अंतर से कचोट रहा था. इसके
बावजूद भी जो कुछ मिला और जितना भी लिपिबद्ध मैं कर पाया, वह बहुत दूर तक हम-आपका
पथप्रदर्शन करेगा, मार्गप्रशस्त करेगा. ऐसा मेरा विश्वास है. इसलिए इस अनुभव में
सबको साझेदार बनाना चाहता हूँ. जब मैं इस गोष्ठी में पंहुचा तो देखा, वहाँ आचार्य
रामचन्द्र शुक्ल जी गोल-गोल ऐनक लगाये अध्यक्षीय आसान पर विराजमान थे. आचार्य
महाबीर प्रसाद दिवेदी जी सञ्चालन कार्य कर रहे थे, यह उनकी कड़क-मिजाजी, अनुशासनप्रियता
और प्रबंधकीय योग्यता ही थी कि सबकुछ इतना शांतिमय और सुव्यवस्थित ढंग से चल रहा
था. आचार्य हजारी प्रसाद दिवेदी मुख्य अतिथि और मैथिलीशरण गुप्त जी विशिष्ट अतिथि
के रूप में मंचस्थ थे. साथ में मुंशी प्रेमचंद, नन्द दुलारे वाजपेयी, इलाचंद जोशी,
श्यामसुन्दर दास, अज्ञेय, पन्त जी, निराला जी, महदेवी वर्मा जी तथा किनारे डॉ. देवराज
मंचस्थ थे.
इस समय डायस पर खड़े होकर अपने विचार रख रहे थे डॉ.
विद्यानिवास मिश्र जी. वे इस परिचर्चा गोष्ठी में साहित्य की परिभाषा को लेकर
विमर्श कर रहे थे. उन्होंने कहा– “साहित्य
की सबसे सटीक परिभाषा यही है कि जितनी बार वह दोहराया जाय, जितनी बार वह पढ़ा जाए
उतनी बार जिया जाये, सही अर्थ में जिया जाए, उतनी बार पाठक या श्रोता के द्वारा
नया रचा जाये. यह बार-बार उसका रचा जाना उसकी सबसे सटीक पहचान है. जब साहित्यकार
सोचता है कि इसमें बार-बार रचे जाने कि क्षमता आये तो निश्चित ही आगे की सोचता है
और अपने ज़माने में रहते हुये अपने बाहर जाकर सोचता है ....... कुछ चीजें जीवन ही
होती हैं. जीवन के लिए अमृत होती है, जीवन का भविष्य ही होती है. कविता या साहित्य
जीवन का भविष्य है. जीवन का मनोरंजन नहीं है. जीवन की उपभोग सामग्री नहीं है, यह
जिंदगी का ऐसा हिस्सा है जो आता है तो बहुत सी चीजें नई कर देता है. घाव भी नए
करता है लेकिन साहित्य जब घाव करता है तो उसमे भी ऐसी अनुभूति होती है, यह घाव
शायद सबको ही करकता होगा न? सबका घाव होने से घाव ऐसा लगता है कि इसके लिए कुछ
करना चाहिए. अपना होता है तो केवल खीज होती है. जब सबका होता है तो दूसरे ही
प्रकार की प्रतिक्रिया होती है”.
डॉ. राम विलास शर्मा ने वहाँ एक नया प्रश्न उठाया, ‘साहित्य मनुष्य के लिए?’ या ‘मनुष्य साहित्य के लिए?’. अपना दृष्टिकोण रखते
हुये उन्होंने तर्कपूर्ण शब्दावली में कहा - “जैसे मनुष्यों के बाहर मनुष्य की सत्ता नहीं है
वैसे ही सुन्दर वस्तुओं से बाहर सौंदर्य की सत्ता नहीं है और तमाम सुन्दर वस्तुएं
तमाम सुन्दर भाव-विचार मनुष्य के लिए हैं, उसकी सेवा करने के लिए नहीं है. साहित्य
भी मनुष्य के लिए है, साहित्य का सौंदर्य मनुष्य के उपयोग के लिए है, मनुष्य
साहित्य के लिए नहीं है. लेकिन अवकाश भोगी सज्जन तमाम जनता का अस्तित्व असिलिये
सार्थक समझते हैं कि वह उनके लिए उपयोग कि वस्तुएं उत्पन्न करती हैं. इसे वे सनातन
ईश्वर-कृत नियम मानते हैं. इसी नियम के अनुसार वह साहित्य को जनता के लिए नहीं
मानते, वर्ण जनता को साहित्य के लिए मानते है.”. मुंशी प्रेमचंद ने कहा - “जिसे संसार दुःख कहता है, वह कवि के लिए सुख
है. धन और ऐश्वर्य, रूप और बल, विद्या और बुद्धि- ये विभूतियाँ संसार को चाहे
कितना ही मोहित कर लें, कवि के लिए यहाँ जरा भी आकर्षण नहीं है. उसके मोह और
आकर्षण की वस्तु तो बुझी हुई आशाएं और मिटी स्मृतियाँ और टूटे हुये हृदय के आंसू
हैं. जिस दिन उन विभूतियों से उसका प्रेम न रहेगा; उस दिन वह कवि न रहेगा. दर्शन
जीवन के इन रहस्यों से केवल विनोद करता है, कवि उनमे लीन हो जाता है.... ज्ञानी
कहता है, ओठों पर मुस्कराहट न आये, आँखों से आँसू न आये, मैं कहता हूँ, अगर तुम
हँस नहीं सकते, तो तुम मनुष्य नहीं, पत्थर हो. वह ज्ञान जो मानवता को पीस डाले ,
ज्ञान नहीं है, कोल्हू है”. ..
माथे पर पसीने की बूँदें छलक आयीं थी. रुमाल
निकल कर पसीने को पोछकर अब वे पुनः माइक के सामने थे – ....“अज्ञान की भांति ज्ञान भी सरल, निष्कपट और
सुनहले स्वप्न देखने वाला होता है. वह इसके विरुद्ध व्यवहार को अमानुषीय समझ वह यह
भूल जाता है कि भेड़ियों ने भेड़ों कि निरीहता का जवाब सदैव पंजों और दांतों से दिया
है. वह अपना एक आदर्श संसार बनाकर उसको आदर्श और मानवता से आबद्ध करता है और उसी
में मग्न रहता है. यथार्थता कितनी आगम्य, कितनी दुर्बोध, कितनी अप्राकृतिक है,
उसकी ओर विचार करना उसके लिए मुश्किल हो जाता है.”
अब अपना विचार प्रकट करने की बारी अज्ञेय जी की
थी. अज्ञेय जी ने अपने बेबाक स्वरों और अपनी अनूठी शैली में बोलना शुरू
किया. भेड़ियों का सामना करने के लिए एक सामाजिक विद्रोह की आवश्यकता होती है. इस
आवश्यकता को रेखांकित कर रचनाकार, सहित्यकार सामाजिक भेडिओं की आँख का किरकिरी बन
जाता है. इस लिए सहित्य सृजन को अज्ञेय जी ने मृत्यु का आह्वान माना. उन्होंने इसी
विन्दु से बोलना प्रारम्भ किया - “साहित्य
का निर्माण, मानो जीवित मृत्यु का आह्वान है. साहित्यकार को निर्माण करके और लाभ
भी तो क्या, रचयिता होने का सुख भी नहीं मिलता, क्योकि काम पूरा होते ही वह देखता
है, ‘अरे, यह तो वह नहीं है जो मैं बनाना चाहता था’, वह मानो क्रियाशीलता का नारद
है, उसे कहीं रुकना नहीं है- उसे सर्वर्त्र भडकाना है, उभारना है, जलना है और कभी
शांत नहीं होना है- कहीं रुकना नहीं है .... मूर्ति का निर्माण हो सकता है,
मृत्तिका का नहीं. उसी मिटटी से अच्छी प्रतिमा भी स्थापित की जा सकती है, बुरी भी,
पर जहाँ मिटटी ही न हो, वहाँ कितने ही प्रचार से, कितनी भी शिक्षा से, कितने भी
जाज्वल्यमान बलिदान से मूर्ति नहीं बन
सकती. विद्रोही हृदय को विद्रोही गदन की आवश्यकता है. उसी प्रकार जैसे मृत्तिका को
कलाकार के स्पर्श की... कुछ क्षण रुक कर वे फिर बोले – “शायद मृत्यु का ज्ञान और जीवन की कामना एक ही
चीज है. यह बहुतबार सुनने में आता है कि जीना वही जनता जो मारना जनता है, यह नहीं
सुना जाता कि जीवन सबसे अधिक प्यारा उसको होता है, जो मारना जनता है, पर है यह भी
ध्रुव सत्य. लोग समझते हैं कि जो जीवन को प्यार करते हैं, वे मृत्यु से डरते हैं.
बिलकुल गलत. जो मृत्यु से डरते हैं वे जीवन से प्यार कर ही नहीं सकते, क्योकि जीवन
में उन्हें क्षण भ्रर भी शांति नहीं मिल सकती.” आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी जी ने कहा – “साहित्य की अतिशयोक्तियाँ इन्द्रधनुष-सी जीवन
के स्थूल, अकाल्पनिक रूखे अस्तित्व को मनोरम बना देती हैं. साहित्य में मनुष्य का
जीवन ही नहीं, जीवन कि वे कामनाएं, जो अनन्त जीवन में भी पूरी नहीं हो सकतीं,
निहित रहतीं हैं. जीवन यदि मनुष्यता कि अभिव्यक्ति है तो साहित्य में उस
अभिव्यक्ति की आशा-उत्कंठा भी सम्मिलित है. जीवन यदि सम्पूर्णता से रहित है तो
साहित्य उसके सहित है.तभी तो उसका नाम साहित्य है. तभी तो साहित्य जीवन से अधिक
सारवान और परिपूर्ण है तथा जीवन का नियामक और मार्गद्रष्टा भी रहता आया है.”. आचार्य
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने
कविता के अलौकिक शक्ति को रेखांकित करते हुये कहा – “कवि की कल्पना शक्ति तीव्र होती है. इस कल्पना
शक्ति के द्वारा वह कठिन बातों को ऐसे अनोखे ढंग से सबके सामने रखता है कि वे सहज
ही समझ में आ जाती है. इसी शक्ति से वह अनजाने पदार्थो के दृश्यों का चित्र इतना
मनोहर खिचता है कि पढ़ने या सुनने वाले एकाग्रचित हो जाते हैं और उस बात पर प्रेम
पूर्वक विचार करते हैं. फिर कवि अपने अवलोकन और कल्पना से ऐसी शिक्षा देते हैं कि वह
न तो आज्ञा का रूप धारण करती है और न अपना स्वाभाविक रूखापन ही प्रकट करती है,
किन्तु भीतर ही भीतर मन को उकसा देती है”.
द्विवेदी जी ने अपनी बातों पर बल देकर कहा– “मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का
पक्षपाती हूँ. जो मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से बचा न सके, जो
उसकी आत्मा को तेजोदीप्त न बना सके, जो उसके हृदय को परदुखकातर और संवेदनशील न बना
सकेउसे साहित्य कहने में मुझे संकोच होता है.” फिर वे साहित्य में भाषा प्रोयोग की
बात पर उतर आये. इसके लिए तप और साधना की अनिवार्यता बताई. इस विन्दु पर अपना
दृष्टिकोण रखते हुये उन्होंने स्पष्ट किया कि- “सीधी लकीर खींचना टेढा काम है. सहज
भाषा पाने के लिए कठोर तप आवश्यक है. जबतक आदमी सहज नहीं होता तबतक भाषा का सहज
होना असंभव है. स्वदेश और विदेश के वर्तमान और अतीत के समस्त वाँग्मय का रस
निचोडने से वह सहज भाव प्राप्त होता है. हर आदमी क्या बोलता है या क्या नहीं
बोलता, इस बात से सहज भाषा का अर्थ निश्चित नहीं किया जा सकता. क्या कहने या क्या
न कहने से मनुष्य उस आदर्श तक पहुच सकेगा, जिसे संक्षेप में ’मनुष्यता’ कहा जाता
है यही मुख्य बात है”.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने
अपने अध्यक्षीय संबोधन में इस विमर्श को एक नया आयाम देते हुये, काव्य को नए रूप
में परिभाषित करते हुये अपना मत प्रस्तुत किया. साहित्य के कार्य-व्यापारों की ओर
लक्षित करते हुये उन्होंने एक रेखा चित्र कुछ यूँ खींचा - “यदि खिले हुये फूलों को देखकर वह न खिला, यदि
सुन्दर रूप सामने पाकर अपनी भीतरी कुरूपता का उसने विसर्जन न किया, यदि दींन-दुखी
का आर्तनाद सुन वह न पसीजा, यदि अनाथों और अबलाओं पर अत्याचार होते देख क्रोध से न
तिलमिलाया, यदि बेढब और विनोदपूर्ण दृश्य या उक्ति परन हंसा, तो उसके जीवन में रह
क्या गया? ..... जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार
हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है. हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए
मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आयी है, उसे कविता कहते हैं. इस साधना को हम
भावयोग कहते हैं और कर्मयोग और ज्ञानयोग का समकक्ष मानते हैं..... जो केवल विलास
या शारीर सुख की सामग्री ही प्रकृति में ढूँढा करते है उनमे उस रागात्मक ‘सत्त्व’
की कमी है जो व्यक्त सत्ता मात्र के साथ एकता की अनुभूति में लीन करके हृदय के
व्यापकत्व का आभास देता है. सम्पूर्ण सत्ताएँ एक ही परम सत्ता और सम्पूर्ण भाव, एक
ही परम भाव के अंतर्भूत हैं. अतः बुद्धि की क्रिया से हमारा ज्ञान जिस अद्वैत भूमि
पर पहुचता है उसी भूमि तक हमारा भावात्मक हृदय भी इस सत्व रस के प्रभाव से पहुँचता
है. इस प्रकार अंत में जाकर दोनों पक्षों की वृत्तियों का समन्वय हो जाता है. इस
समन्वय के बिना मनुष्यत्व की साधना पूरी नहीं हो सकती”. अंत में पन्त जी ने सभी साहित्यकारों
और पाठकों का धन्यवाद ज्ञापित किया, और इस प्रकार परिचर्चा का समापन हुआ.
वापस घर लौटते समय सोच रहा हूँ, साहित्य यदि मनुष्य के लिए ही
हो तो क्या होगा? क्या साहित्याकर एक
चाटुकार नहीं बन जायेगा? क्या एक चारण, एक भाट और रागदरबारी बनकर ही नहीं रह
जायेगा? साहित्य, केवल साहित्य के लिए भी नहीं होना चाहिए.... कोई ईश्वर को माने
या न माने, यह उसकी अपनी मर्जी. लेकिन वह सत्य को तो मानेगा. साहित्य का श्रेय और
प्रेय यही सत्य होना चाहिए. इस सत्य को सुन्दरम बनाने का दायित्व साहित्य का ही
है. चिन्तक, वैज्ञानिक और दार्शनिक भी अपनी अभिव्यक्ति साहित्य के ही माध्यम से कर
पाता है. इसलिय साहित्य ही वह विधा है जो सत्य को भी, दार्शनिक अभिव्यक्ति को भी रगडता
है, घिसता है पूरे कौशल और तन्मयता के साथ, उसकी रुक्षता को घिसकर हीरे जैसी निखार
लाकर मानव के लिए उपयोगी भी बनाता है और संग्रहणीय भी. यह हीरा लोहे की तिजोरी में
नहीं मानव के मन-मस्तिष्क में रहता है. सत्य रूखा होता है, सूखा होता है, कटु होता
है. इस सत्य में माधुर्य और सरसता यह साहित्य ही लाता है. वही सत्य को ‘कटु सत्य’
से ‘सुन्दर सत्य’, ‘सत्यम सुन्दरम’ बनाता है. यही ‘सत्यम सुंदरम्’ कल्याणकारी समाज
की संरचना करेगा और ‘शिवम’ बनकर उसमे कल्याण की अन्तःशक्ति प्रवाहित करेगा. तब
समाज में केवल दो हाथ-पैर वाले मनुष्य मात्र नहीं रहेंगे, रहेगी उसकी आभा ‘मनुष्यता’
और ‘मानवता’ भी. इस मानवता के अभाव में क्या मानव समाज भी केवल एक पशु-समाज बनकर ही
नहीं रह जायेगा? इसलिए यह ‘मानवता’ ही साहित्य का एकमात्र लक्ष्य होना चाहए. लेकिन
यहाँ भी हमें मुंशी प्रेमचंद की चेतावनी को याद भी रखना होगा -....“अज्ञान की भांति ज्ञान भी सरल, निष्कपट और
सुनहले स्वप्न देखने वाला होता है. वह इसके विरुद्ध व्यवहार को अमानुषीय समझ वह यह
भूल जाता है कि भेड़ियों ने भेड़ों कि निरीहता का जवाब सदैव पंजों और दांतों से दिया
है. वह अपना एक आदर्श संसार बनाकर उसको आदर्श और मानवता से आबद्ध करता है और उसी
में मग्न रहता है. हमें इस आत्ममुग्धता को दूर करना
होगा. साहित्य को प्रभुता और मानवता में से यदि एक का वरण करना हो तो निश्चित रूप
से मानवता को ही वरण करना चाहिए. इसके लिए ज्ञान दृष्टि और समत्व भाव की भी आवश्यक
है. लौह और स्वर्ण में समत्व भाव दृष्टि रखनी होगी. शायद इसी का संकेत करते हुये
विद्वान समीक्षकों ने अपने संबोधन में ‘तप’, ‘साधना’, ‘कर्मयोग’, ‘ज्ञानयोग’,
‘भावयोग’ जैसी शब्दावली का प्रयोग किया है. विना साधना के मानवता विकसित नहीं हो
सकती. इस मानवता में ही दिव्यता है. यह दिव्यता ही ईश्वरत्व है, यह दिव्यता ही
प्रकाश है, यह दिव्यता ही अमृतत्व है. साहित्य का उद्देश्य इसी लक्ष्य की प्राप्ति
होनी चाहिए और यही है भी. तभी तो साहित्य विनती करता है स्वर-संगीत की देवी से –
हे माँ!
मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो.
मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो.
मुझे मृत्यु से अमरत्व की ओर ले चलो.
प्रस्तुति: अनाम दास ‘स्वर्गवासी’
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