तू मेले में मेरे साथ रही
अकेले में मेरे साथ रही
विद्यालय में मेरे साथ रही
सचिवालय में मेरे साथ रही,
माना तुम साथी बचपन की
अब उम्र हो गयी पचपन की
कर चूका विदा मैं बेटियों को
अब वहू है घर में आने वाली
फिर भी संग-संग लगी हो मेरे
क्या चाहत, बोलो मतवाली.
मेरे प्रत्येक प्रश्न के उत्तर में
धरे रहती हो सदा तुम मौन
चिर परिचित ! हे सदा अपरिचित
मुख खोलो, भद्रे ! हो तुम कौन?
क्यों इतना चिढ़ते हो मुझसे
क्या कभी माँगा कुछ तुझसे
अपने से नहीं हूँ आई मैं
प्रारब्ध मेरा, है बंधा तुमसे
जब तक रहोगे, जहाँ रहोगे
छोडूंगी न साथ कभी तुझसे
पूछते हो तुझसे रिश्ता है क्या
स्वयं मैं भी इसे नहीं जानती
मित्र कहो, शत्रु कहो, या मतवाली
न मैं तेरी साली हूँ, ना हूँ घरवाली
ना ही किसी की सौतन हूँ मैं
ना प्रियतमा,ना ही भौजाई
देखो चेहरा खिला खिला है
ना ही इसमें कहीं कोई झाईं
परिचित कहो, या निरा अपरिचित
हे सौम्य ! मैं तो तेरी ही परछाईं
डॉ जयप्रकाश तिवारी