Friday, April 19, 2013

चट्टान और सरिता


 अभी अकड़ा हुआ सा

कठोर, पर्वत की एक

चट्टान हो तुम!

...और मै...?

पहचानते तो हो न मुझे?

वही, तुम्हारे ही आगोश में

बहती एक पथरीली नदी,

क्षुद्र सरिता; चाहती आश्रय,

जिसे नकारते हो तुम.

मेरी बूँद को अर्थहीन ही

अब तक मानते हो तुम.

 

हाँ, जानता हूँ, तुम अतिचंचला,

कलकल-शीतल, बहती एक सरिता,

तू हिमशिखर त्याग, गृह छोड़नेवाली.

मैं अटल-अविचल टिक रहनेवाला,

निभेगा कैसे? कहो तुम्ही, हे मतवाली!

 

हाँ, ठीक कहा तूने लघु गिरिवर!

शैल की एक चट्टान ही, हो तुम!

चेतन होकर भी, बने हो जड़मति

मिथ्या गुमान, अभिमान हो तुम!

याद रखो, गाँठ बाँध लो तुम भी!

समय के साथ-साथ जब तुम भी

घिसोगे, पिसोगे, रगड़े जाओगे और

एक दिन बालुका-कण बन जाओगे,

रेत बनकर इधर-उधर बिखर जाओगे.

पावों तले, जूतों के नीचे रगड़े जाओगे,

तब तरसोगे, मेरी एक बूँद जल के लिए.

 

जब बहेगी हवा और तुम्हे नचाएगी,

बारम्बार इस छोर से उस छोर दौडायेगी,

जो अहंकार था तुम्हे, अविचल रहने की,

न झुकने की, न हिलने की, न डोलने की,

और तूफानों की दिशा को भी बदल देने की.

जब वह चूर होगा, टूटेगा, तब तरसोगे तुम,

हाँ, तुम! मेरी ही एक बूँद जल के लिए...

 

जिस स्थिरता का अभिमान था,

स्वभाव था, आदत थी, उसी को

पुनः - पुनः पाने को, तडपोगे तुम!

कोई दिखेगा नहीं, अकेले रोओगे तुम!

हाँ तुम! मेरी ही एक बूँद जल के लिए.

 

तुझे मिलेगी स्थिरता, चैन औ आराम

मेरी ही तलहटी में बैठकर और सोकर.

क्योकि तब हवा तुम्हे उड़ा नहीं पायेगी,

मनमाने ढंग से तब नचा नहीं पायेगी

तब बदलेगी धारणा, इस बूँद के लिए.

हाँ, हाँ, उसी मेरी ही एक बूँद के लिए.

 

मेरी ही क्षमता है, तुमको फिर से

कठोर और बहुपयोगी बना देने की.

पुराना स्वरुप, खोया गौरव लौटा देने की.

जानते हो! रेत और जल के साथ मिलेंगे

जब स्नेह-सौहार्द्र-विश्वास-सामंजस्य की

सीमेंट, व्यावहारिकता की गिट्टी एक साथ,

तब तुम्ही बन जाओगे, अब आश्रय प्रदाता.

तब समझोगे, महत्व मेरी इस एक बूंद का.

क्या पता यह समझ, तुम्हे अब भी आएगी?

या अकड में मेरी बात यूँ ही फिर बह जाएगी?

              
              डॉ. जयप्रकाश तिवारी, भरसर, बलिया