Sunday, May 2, 2010

नैराश्यभाव से तार न जोड़ो

हो न निराश तुम्हे मिला नहीं,
यदि बेला, चंपा और गुलाब.
नैराश्यभाव से तार न जोड़ो,
आशा की कोई राग तो छेड़ो.

देखते हो केवल रंग-रूप तुम,
उससे रिसता लहू भी देखो...
भ्रमित हुए हैं जीवन में कितने.
कुछ अंतस में भी घुस कर देखो.

पुष्प केवल बेला और गुलाब नहीं,
....अब गेंदा कनेर से नाता जोड़ो.
इस गुलाब ने, बेला ने लुटे हैं,
घरौदें, एक नहीं....बहुतेरे....
बहुतों के गम दूर किये हैं -
गेंदा ....और ....कनेरे.........

अधिकारों की माँग बहुत है,
गुलदस्तों में ये गरजते हैं.
कर्त्तव्यों का है बोध उसे,
अंगारे पर जो चलते हैं.

यह बेला- गुलाब बिछ पथ में
उनके पैरों में फिर चुभता है.
यह तो है गेंदा कनेर जो
पग के घाव को भरता है.

राग जुड़ेगा सत्व से जब,
सब रंग - रूप भूल जाएगा.
मोहकता ही नहीं है सबकुछ,
परख कभी जब हो जाएगा.

आखिर हिंदी अपनी हार गयी,

आखिर हिंदी अपनी हार गयी,
हिंद के गले की 'हार' गयी.
होता है कष्ट कहें कैसे ?
यह हिंदी हिंद में हार गयी.

यह 'आह' - 'वाह' की बात नहीं,
दिल पर भी नया आघात नहीं.
दिल भरा - भरा है घावों से,
है कष्ट दिलों से भाषा की प्यार गयी.

हर देश की अपनी भाषा है,
क्यों भारत में ही निराशा है?
एक जुबाँ के लिए तरसते हैं,
बाहर तो खूब गरजते हैं.

जब सदन में चर्चा उठती है,
हिंदी की लुटिया डूबती है.
हाउस में वो शर्माते हैं,
जो हिंदी की ही खाते हैं.

चुप बैठे वे क्यों रहते हैं?
जो बाहर खूब गरजते हैं.
क्या भय है अन्दर उनके,
जो घुट-घुट कर वे सहते हैं?

अब आंग्ल भाषा आयी है,
दिलों पर सबके छाई है.
यह नटखट छैल-छबीली है,
यह कटी पूँछ की बिल्ली है.

हिंदी के घर की खाती है,
पर 'हाई', 'हेल्लो" करती है.
हिंदी को समझती चुहिया सा,
पंजों से वार ये करती है.....

जब से संगति हुयी इससे,
वे बन गए तब से 'रंगे सियार',
पहले बदले वस्त्र - विचार,
फिर बदल गए सारे व्यवहार.

जाब सूट - बूट में आते हैं,
अंग्रेजी में गुर्राते हैं.....
जब बाँध के पगड़ी आते हैं,
बैठे - बैठे शर्माते हैं......

अब आचरण एक पहेली है,
रहस्यमयी एक हवेली है.
है बुढ़िया यह जादूगरनी सी,
वे समझे यह नई - नवेली है.

यह पर्दा कौन हटाएगा ?
वह वीर कहाँ से आयेगा ?
अब भी तुम जगे नहीं भाई!,
निश्चय ही 'क्लीव' कहलायेगा.

उदगार नहीं यह प्रश्नपत्र है

उदगार नहीं यह प्रश्नपत्र है
पढ़िए जरा संभलकर

प्रतिदिन की तरह समाचारपत्र आया,
प्रमुख खबरों पर नजर दौड़ाया;
परन्तु पढ़ते ही सिर चकराया.
अरे! यह क्या हुआ? क्यों हुआ?
ऐसा हादसा सावित्री के साथ.

हाँ भाई! उसी सत्यवान की सावित्री के साथ
जिसे समाज भारतीय संस्कृति का उपमान
और अपनी उन्नत सभ्यता का,प्रतीक मानता है.
उसी ममता की मूर्ति, पतिव्रता सावित्री को;

जिसे कल सायं ही तो देखा था मैंने भी,
हाथ म पूजा की सजी थाली संग में,
अर्चना और वंदना के देवालय जाते हुए.
और आज यह खबर कि ...
शिवालय से लौटते समय इस लोक के
यमदूत उठा ले गए उसे.......

चर्चा है न्यायालय में सत्यवान द्वारा
सत्य संभाषण की सजा वे सावित्री को;
दे गए, जाते - जाते सत्यवान को भी
देख लेने की धमकी दे गए.
निर्भीक सत्यवान अब इतना डर गया
कि पुलिस -कचहरी कि बजाय
सीधे किसी भाई के घर गया.

विद्यालय से लौटती दुर्गा को
ऑटो में शुम्भ - निशुम्भ ने
अपहृत कर लिया.बदले में
लक्ष्मी को देकर भी दुर्गा को
बचाया नहीं जा सका.
इधर पड़ोस कि राधा ने
प्रेम प्रसंग में बाधक अपने
मोहन का सफाया करा दिया..

और सभी शव मिले एक ही जगह पर;
उस बूढ़े बरगद और ठूंठ अश्वत्थ वृक्ष के नीचे,
जहाँ त्रिपुरारी शिव, हाथ में त्रिशूल लिए
और बजरंगी गदा लिए खड़े हैं.

स्थिति यही है, क्या कम दुखदायी ?
जो सीमा पार से खबर जासूसी की आई.
क्या होगा इस देश में आगे ?
रक्षक ही भक्षक जब बन जाएगा?
है भार सुरक्षा का जिन पर
वह सरेआम बिक जाएगा.
भय है, नहीं है माधुरी यहाँ एक,
छिपे हुए हैं भेड़ की खाल में भेड़िये अनेक.

पश्न है -
सत्यवान की निर्भीकता कहाँ खो गयी ?
यमराज को भी मात देनेवाली सावित्री
यमदूतों से हार कैसे गयी?
महिषासुर मर्दिनी शुम्भ-निशुम्भ से
पराजित कैसे हो गयी?

आज की राधा ने
अपने मोहन से घात क्यों किया?
और मोहन अपनी राधा को
पहचान क्यों नहीं पाया?
त्रिपुरारी की त्रिशूल और
बजरंगी की गदा आज
जडवत निष्प्राण क्यों है?

भीष्म की मजबूरी तो
फिर भी समझ में आती है
परन्तु अर्जुन के गांडीव में चूक क्यों है?
संस्कृति और सभ्यता के नाम पर
कभी सूर्पनखा का कर्ण - नासिका
विदीर्ण करनेवाला लक्ष्मण
आज उसी सूर्पनखा के
तलवे क्यों चाट रहा है?

और आज का समाज
कुम्भकर्णी निद्रा में क्यों सो रहा है?
हमारे अंदर वह जज्बा क्यों नही है
जो इनको इनके किये की सजा दिला दे
इन रंगे सियारों को भींगी बिल्ली बना दे.
मुझको उत्तर कुछ समझ न आया
इसलिए प्रश्न है आज उठाया.

अरे! सृष्टि बदल गयी है या
मेरी ही दृष्टि बदल गयी है?
अरे! कब चिंतन बदल गया?,
मान्यताएं बदल गयीं हैं?
ये समाज बदल गया है या
मेरा ही विचार बदल गया है.
चित्कार रही मानवता
और समाज सो रहा है.
कोई तो ये बताये,
ये क्यों हो रहा है?
ये क्या हो रहा है?