आखिर
बड़ा है कौन?
जल की एक बूँद
या गहरा समुद्र?
यह प्रश्न
मथ रहा है
सदियों से,
संवेदनशील
मनीषा को.
उसकी संवेदना
उसकी प्रज्ञा को.
चिन्तक वैज्ञानिक
और फ़रिश्ता को.
यह प्रश्न
जितना छोटा
जितना सरल
दीख रहा है,
है उतना ही
जटिल और गूढ़.
बड़े-बड़े विद्वान्
और ऋषि मनीषी भी
बन गए हैं यहाँ मूढ़.
जिसने भी
इस ज्ञान गंगा में
गोटा लगाया;
उनके हाथ लगा
कुछ सीपी - शंख
कुछ मोती भी.
परन्तु बहुतो ने
अपनी मुट्ठी बंद
और रीता ही पाया.
आखिर
क्यों होता है ऐसा?
यह प्रश्न क्यों नहीं है
और प्रश्नों जैसा?
क्योकि प्यारे!
यहाँ गंगा उलटी
भी बहती है.
वह बूँद
जिससे अनवरत
भरा- भरा रहता
है यह - समुद्र.
ऊपर आसमान
और अन्तरिक्ष
तक जाती है.
समुद्र की ही नहीं
आकाश की भी
तृषा मिटती है.
उसकी प्यास
बुझाती है.
यहाँ
उलझन और
भी बढ़ जाता है
जब यह अथाह
सागर एक
दिन उसी
एक बूँद में
पूरा का पूरा
समां जाता है.