Sunday, October 9, 2011

हे चिन्तक! तुम्हे प्रणाम!!

चिन्तक और समीक्षक
न तो सुविधाभोगी होता,
न अतिरिक्त वेतन भोगी.
जो होते हैं सुविधाभोगी
और अतिरिक्त भोगी;
हो जाते हैं वे शिकार,
उस सुविधा के ही.

फिर कब हो जाती है -
कुंठित कलम की धार?
कब रूप धर लेती है
उनकी विद्वता और
प्रतिभा व्यापार का?
नहीं जान पाते वे भी.
जानती है यह केवल
उनकी यह सुविधा.

चिन्तक और समीक्षक
तो इस जगत का यार है,
सृष्टि से ही उसे प्यार है.
सिद्धांत ही उसका श्रृंगार है.
प्रतिदान, अवदान और
सुविधा की बात
तो निरा व्यापार है.

चिन्तक/समीक्षक को
व्यापार से नहीं,
केवल अपने दायित्व
और कर्त्तव्य से प्यार है.
एक चिन्तक के जीवन
और मृत्यु का,
यही मात्र एक कसौटी,
मात्र एक आधार है.
हे चिन्तक! तुम्हे प्रणाम!!
बारम्बार नमस्कार है.

चिन्तक की विद्वता-प्रतिभा
तो माँ सरस्वती की देन है.
लेखनी और तूलिका में
शक्ति और सामर्थ्य तो
माँ दुर्गा भगवती की देन है.
लेकिन बिक जाना उसका
सुविधा के हाथों -
यह किसकी देन है?
यह चिंतन का निरा अपमान है,
ऐसे चिन्तकों को धिक्कार है.