यदि मौन ही,
सत्य की अभिव्यक्ति है -
तो लेखक, चिन्तक, कलाकार और
कवि लेखनी क्यों है उठता ?
कैनवास पर ब्रश क्यों है चलाता ?
शब्दों का भ्रम - जाल क्यों फैलता ?
अपनी अनुभूतियों, अपने बोध को,
जन सामान्य के बीच क्यों है लाता ?
क्यों कि;
चिन्तक, कवि और सत्यद्रष्टा,
निरा-स्वार्थी नहीं; संचयी नहीं,
होता है वह - 'लोकमंगलकारी..
कामना लोकमंगल क़ी,
किये रहती है उसे
व्यग्र, बेचैन और परेशान.
संवेदनाएं शांत बैठने नहीं देती.
आंतरिक ऊर्जा के प्रवाह में ही,
वह ब्रश और लेखनी उठाता है,
पूरी क़ी पूरी कापियां, डायरियां
और कनवास को रंग जाता है..
वह जनता है -
सत्य ही परम है, परम ही सत्य है.
यह दृश्य तो अदृश्य का ही विवर्त है.
सत्य, गूंगे का गुड है.
सत्य अकथ्य अवश्य है, 'अबोध' नहीं.
दुर्बोध है, अदृश्य नहीं .
सत्य साक्षात्कार के लिए चाहिए,
दिव्य चक्षु, अंतर्दृष्टि, आत्मबोध.
और ...उस मौन को प्रखर रूप में,
सुनने, समझने क़ी क्षमता.
साहित्य, प्रतीक और चित्र..,
करते है विकास उसी क्षमता का.
साहित्य, प्रतीक और चित्र,
आधारशिलायें हैं, उपयोगी दवाएं हैं,
अंतर्दृष्टि की, संवेदना जागृति की.
अशब्द को जानने की ललक,
जागृत की जा सकती है -
शब्दों.- प्रतीकों - चित्रों से ही.
निहारा जा सकता है -
उन 'अरूप' को सरूप में ही.
निर्गुण के परख की विधा,
गुम्फित है इन गुणों में ही.
इसलिए,
चिन्तक, कवि और कलाकार,
निभाता है, अपना लोक धर्म.
अपनी अनुभूतियाँ बताते - बताते,
हो जाता है स्वयं, एक दिन -'मौन'.
और इस प्रकार, प्रलय से सृष्टि,
और सृष्टि से प्रलय का ,
पूरा एक चक्र, कुशलता से दुहरा जाता है.
सृष्टि के गूढतम - गुह्यतम - रहस्यमय,
सत्य को, बात की बात में ,
कितनी सरलता से समझा जाता है.