हमें जाना है सुदूर....
इस महीतल के भीतर..
अतल-वितल गहराइयों तक.
हमें जाना है भीतर अपने
मन के दसों द्वार भेद कर
अंतिम गवाक्ष तक.
अन्नमय कोश से ....
आनंदमय कोश तक.
छू लेना है ऊंचाइयों के
उस उच्चतम शिखर को,
जिसके बारे में कहा जाता है -
वहीँ निवास है, आवास है
इस सृष्टि के नियामक
पोषक और संचालक का.
पूछना है - कुछ 'प्रश्न' उनसे,
मन को 'नचिकेता' बना कर.
पाना है - 'वरदान' उनसे
तन को 'सावित्री' बनाकर.
और करना है- 'शास्त्रार्थ' उनसे,
"गार्गी' और 'भारती' बन कर.