एकल रूप में हम सब भारतवासी
एक-एक अक्षर हैं - 'हिदी वर्णमाला' के,
जब जुड़ते हैं सब एक - एक कर
नियम से, स्नेह से, तब बन जाते हैं -
सुन्दर, प्रेरक, सार्थक - 'सदवाक्य'.
बन जाते हैं - 'गीत' और 'गान',
रच जाते हैं - कहानी और उपन्यास.
सृजते हैं - साहित्य और महाकाव्य.
जिसमे निभाते हैं साथ - 'विराम चिह्न',
और मात्राएँ धुन बन के, साज बन के;
ध्वनि, संगीत और ...आवाज बन के.
उनका पथ करते है - 'प्रशस्त',
संगीत के सप्तस्वर, पाणिनि के
नियम और माहेश्वर के प्रसिद्द सूत्र.
जब इन अक्षरों से बनते हैं -
शब्द विन्यास, गद्यांश और पद्यांश;
तब खिल उठती है- हमारी सभ्यता,
हमारी संस्कृति, हमारी प्रकृति,
हमारे ज्ञान-विज्ञानं, धर्म-सत्कर्म.
परन्तु यही अक्षर जब भटकते हैं,
आपस में एक दूजे की राह रोकते हैं;
लड़ते-भिड़ते हैं, शब्द विन्यास के
नियमों को तोड़ते हैं, मरोड़ते हैं -
तब साहित्य और समाज दोनों,
हो जाते हैं -' कुंठित' और 'विकृत'.
श्रेष्ठ उपन्यास और श्रेष्ठ काव्य का
सृजन - प्रणयन रुक जायेगा.
साहित्य के नाम पर विकृत साहित्य
परोसा जायेगा और भावी पीढ़ी को
भटकाने का सारा दोष;
हम पर-आप पर-ही मढ़ा जायेगा.
इसलिए आज आवश्यकता है -
अक्षर - अक्षर से भिड़े नहीं,
श्रेष्ठता-वरिष्ठता की होड़ में पड़े नहीं....
अन्यथा श्रेष्ठ कविता, श्रेष्ठ कहानी,
श्रेष्ठ उपन्यास और श्रेष्ठ काव्य का
सृजन - प्रणयन रुक जाएगा.
साहित्य के नाम पर विकृत साहित्य
परोसा जायेगा और भावी पीढ़ी को
भटकने - भटकाने का सारा दोष
हम पर आप पर ही मढ़ा जाएगा.