Monday, July 3, 2017

आत्म विमर्श की वेला

आत्म विमर्श की वेला मे
पूछा मन ने कौन हो तुम?
उत्तर मिला - ‘सर्वनाम’
कौन है ‘संज्ञा’,
इस सर्वनाम का?
और... ‘तुम’ कौन?
मैं भी ‘सर्वनाम’,
किसका? किस ‘संज्ञा’ का?
अरे ! ‘मैं’ और ‘तुम’!
दोनों ही सर्वनाम तो
बीच मे ‘वह’ किसका नाम?
अरे ! वही..., वह..., उसका
अरे ! उसी ‘संज्ञा’ का,
क्या है – ‘वह’?
अरे! यह भी तो है
सर्वनाम, किसी ‘संज्ञा’ का।

तो ... फिर
यह ‘संज्ञा’ है कौन?
यह जो रूपवान? आकृतिमान?
हस्त–पाद वाली आकृति? शरीर?
नहीं, ... नहीं. यह काया है
फिर वह जो है ‘सर्वनाम’
वह वाचक है ‘किसका’?
क्या वह, जो आचार्य है?
अभियंता है? वैज्ञानिक है?
शिक्षक - नेता - फकीर है?
ऋषि – मुनि – साधु है? 


लेकिन ...
क्या यह उनकी तकदीर है?
अरे नहीं...यह तो है ‘विशेषण’
‘संज्ञा’ की, उस ‘सर्वनाम’ की
तो जो कार्य करते हैं ये लोग?
वह क्या है...? वह तो
एक ‘प्रक्रिया’ है, वह भी सर्वनाम,
फिर … वही प्रश्न ...
तो ‘संज्ञा’ क्या है?
व्याकरण मे बचा अब ‘अव्यय’,
लेकिन अब ‘अव्यय’ कैसा?
जब सबकुछ व्यय हो चुका,
सर्वनाम से ‘क्रिया’ तक
सृजन से प्रक्रिया तक।

लेकिन ...अब भी ...
क्या कुछ पता चल सका
इस ‘संज्ञा’ का?
अबकी बार मुख खोला
स्वयं ही ...इस बुद्धि ने नहीं,
उस ‘प्राज्ञ बोध’ ने
मन ने नहीं, ‘सिद्ध मुनि’ ने -
ढूँढ़ना है ‘संज्ञा’ को यदि
जाओ भूल नियम व्याकरण के
और सिद्धान्त सारे विज्ञान के।
तत्व रूप जग एक है
नाम – रूप अनेक।
एक अनेक से भिन्न नहीं
तत्व – तत्व सब एक॥
डॉ जयप्रकाश तिवारी