Sunday, September 11, 2011

शिक्षक दिवस की संगोष्ठी में

गया था शिक्षक दिवस गोष्ठी में, सुनने शिक्षा की बात,
बातें तो सबने कही, करते रहे वे, व्यवस्था पर आघात.
लेकिन कैसे शिक्षा सुधरे? यह प्रश्न किसी ने नहीं उठाया
सबने गाई अपनी-अपनी, अपनी सुविधा ही प्रश्न उठाया.

मैं जो गया था मन में सोचकर, वैसा कुछ भी नहीं पाया,
करता क्या? रणछोड़ नहीं जो, बैठ वहीँ आराम फ़रमाया.
पड़ चुकी थी दृष्टि बहुतों की, पर नहीं किसी ने मुझे जगाया,
लेकिन कुछ ऐसे भी थे, जिनको पसंद नहीं यह आया.

हुआ इशारा माइक से, अरे ! कोई उनको तो जगाओ.
शिक्षक दिवस के पावन पर्व पर, उन्हें शिष्टाचार पढाओ.
विहँस पड़ा मै, बांते सुनकर, अब वक्ता बहुत झल्लाया,
जाने क्या फिर सूझा उसको, डायस मंच पर मुझे बुलाया.

कहने को क्या एक श्रोता के पास ? मेरा सिर चकराया,
शिक्षक दिवस था, इसलिए शिक्षा का ही प्रश्न उठाया.
जब हम शिशु थे, पढ़ते थे, 'अ' से अनार, 'आ' से आम.
होकर बड़े वही बच्चे, रोपते थे पौध - अनार और आम.

अब आप पढाते, 'अ' से अजगर, 'आ' से पढ़ाते आरी.
ये बच्चे पढकर बड़े हुए, अब खूब चलाते आरी.
जो पढ़े वही गुण अपनाते, डकार देश का धन, पेट फुलाते.
काट - काट कर बाग़ - वन, प्लाटिंग उसमे हैं करवाते.

सुविधा की माँग तुम बाद में करना, आदत पहले सुधारों,
समय से आओ, समय से जाओ, बच्चों में आदर्श जगाओ.
उन्हें अजगर मत बनाओ, हाथ में आरी मत पकडाओ.
उन्हें अजगर मत बनाओ, हाथ में आरी मत पकडाओ.

यदि 'क' से कमाल साम्प्रदायिकता के कारण नहीं पढ़ा सकते,
'क' से कबूतर तो पढ़ाओ, शान्ति - सौहार्द्र का बोध कराओ.
यदि 'क' से कंगारू पढाओगे, नैसर्गिक जेब वह लायेगा.
अब केवल पेट ही नहीं भरेगा, जेब भरेगा, भ्रष्टाचार फैलाएगा.
सींचने से पत्ता कोई लाभ नहीं, सींचना है तो जड़ से सींचो,
दोष - दर्शन से क्या होगा, देखना हो तो दर्पण देखो.