Friday, January 5, 2018

माँ की चरणों मे बैठकर

इस जीवन के बीते कई बरस
कहीं धूप खिला कहीं साया है
इस अनुभव के हैं विविध रंग 
मेरे रग रग में यही समाया है
माँ छोड़ गयी, एक महापुराण
ये शब्द नहीं, शब्दों मे प्राण
शब्द ही तो गीता का उपदेश
शब्द ही रामायण का संदेश
शब्द मे वेद उपनिषद निर्देश
शब्द के भाषा- बोली कई देश 

इन शब्दों की कोई माया है?
या है निहितार्थ का माधुर्य?
किसी शिल्पी की कृति है यह
या प्रज्ञा का अपना उत्कर्ष?
किसमे इतनी प्रतिभा है, और
कौन हो गया इतना समर्थ ?
दयानिधान की दया मिले जब
और करुणा, करुणानिधान की
तब जाकर कहीं मिलता आशीष
ऐसे ही नहीं कोई बनता मनीष.

भाई पूजा करनी पड़ती है यहाँ
अरे ! एक नहीं, अनेको बार
पूनम की शीतल चांदनी हो
या अमावस की घोर अंधकार
सबके जीवन मे तृष्णा है
निदान सबकी यह कृष्ण है
कृष्णा होना कोई सरल नहीं
अमृत सुधा है, गरल नहीं
गोदी जिसके खेलती नेहा
माथे पर रोली - चन्दन है
निशा -राकेश, संधि वेला मे
सबका ही यहाँ अभिनंदन है ,

करना पड़ेगा स्वीकार सबको
जन्म-मृत्यु दो छोर जीवन के
जिया जन्म तो मारना ही है
यही, यही तो सच्चा ज्ञान है
ज्ञान - योग यह सरल नहीं
पीयूष है यह, कोई गरल नहीं
नरेंद्र को कितने जानते है
सब स्वामी को पहचानते हैं.
कवीन्द्र रवींद्र की बात अलग
भोले के नाथ तो राम ही हैं
राम के नाथ हैं बोलो कौन?
मेरे प्रश्न पर क्यों सब मौन?

उमा - रमा- अनुसुइया सबकी
अपनी अपनी अलग कहानी है
किसी के लिए 'विनोद, परीक्षा
किसी की संकट में जवानी है,,
खिलता प्रकाश जिसका यहाँ
तिमिर को जो जय करता है
विद्या के अभाव में वही
मंजु - पुष्प को भी डँसता है.
उम्र बीत गयी दम्भ न गया
मन से लोभ प्रीति ना गया
यहाँ बैठे- बैठे यह सोच रहा हूँ
अरे क्या पाया, क्या खो गया?

जिसने लहू पिलाकर पाला था
कोई देवी थी वह, या काजी था
विलीन हो गयी परम सत्य में
नाम जिसका - 'देवराजी' था,
ऐसे ही नहीं यह नाम पड़ा था
देवों को उसने किया था राजी
मरते दम तक उपवास किया
किसमें इतना दम? बोलो जी !
मृत्यु को उसने टाल दिया था
एक नहीं, कई बार किया था
इतनी दृढ इच्छा-शक्ति थी उसमे
उसने अपना स्व-धर्म जिया था.
वह चली गयी, पर छोड़ गयी
क्या छोड़ गयी, यह सोचना है
जिस पल्लव-पुष्प को छोड़ गयी
मिलकर उसको अब सींचना है.
जयप्रकाश तिवारी