'तम' काला था अँधियारा था
दुर्गम - दुर्बोध - भयंकर था.
नेत्रों से बरसते, जब अंगारे,
शूरमाओं को दीखते तब तारे.
जहाँ डर के हुए वे शरणागत,
और नहीं, प्रस्थर - शंकर थे.
सुन आराधना प्रज्ञान जगत की,
देख साधना विज्ञान जगत की,
'तम' ने अपना आवरण हटाया,
असली अब रूप प्रकट हो आया.
काली कुरूप भयंकर थी जो,
विकराल-काल-प्रलयंकर जो,
हो गयी वह 'क़ाली' से गोरी.
'गौरी' नाम अब उसने पाया.
पर्वत-पहाड़ियों-प्रस्थर में थी,
जब तक सुषुप्त वह क़ाली थी.
जब हुयी प्रकट आवरण तोड़.
'अग्नि' रूप वह गोरी सी थी.
ठन गयी है अब दोनों ही में,
प्रज्ञान जगत, विज्ञान जगत में.
यह कहता 'देवी है', खोज हमारी है.
वह कहता 'ऊर्जा है' खोज हमारी है.
दोनों ने उसे पर्वत में पाया,
अपना अलग सिद्धांत बनाया.
कहता उसको 'शैलजा', 'पार्वती',
'हीट' और 'ऊष्मा' कहे उसे दूजा.
यह कहता 'देवी', परम चैतन्य,
वह कारण है मूल, वह चंचला है.
वह भी कहे कारण है, चंचला है
चैतन्य नहीं, वह केवल ऊर्जा है.
'तम' ने हो मुखर दिया निर्देश,
क्यों लड़ते हो, करते हो क्लेश.
शिला पर कालिमा खुद चढाओ,
श्यामपट्ट बनाओ, सत्य फैलाओ.
जो चंचला है, वही 'चिति' है
जो शांत रूप, वह शिवशंकर है.
यह 'शक्ति' ही 'शिव' की ऊर्जा है,
बिना शक्ति, शिव भी प्रस्थर है.
हमने पाया है अब तक जो ज्ञान
इस तम का ही है सारा वरदान.
लड़ रहें हैं हम बना करके खेमा,
कितने बड़े हम हैं - नादान'.