यह श्वेत पंछी - 'बगुला',
जो होता है प्रतीत-'हंस के कुल का'.
उसी प्रतीति के कारण खा जातीं हैं
धोखा और मात अपने जीवन से -
ये जल जीव और 'मछलियाँ'.
जिस प्रकार बगुले के
स्वच्छ - धवल तन में,
छिपा है -'कलुषित-कुटिल मन',
ठीक उसी तरह स्वच्छ खादी में,
लिपटे हैं आज,'कलुषित-कुटिल तन'.
करते हैं दोनों एक जैसे काम,
बगुला करता है हंस को बदनाम.
और इंसान करता है -
उस पवित्र वस्त्र को बदनाम,
जिसके बारे में धारणा थी -
यह मात्र एक वस्त्र नहीं विचार है,
इसमें लिपटा एक मूर्त सदाचार है.
अपने रंग चयन पर ,
आज सदाचार पछता रहा है और
वह इंसान होठों पर कुटिल हास्य विखेरे,
निर्लज्ज सा खडा देखो मुस्करा रहा है.