Friday, November 21, 2014

'चिंतन' अमर होता है

जो व्यक्त है
जो उत्पन्न है
वह कार्य है,...
जो है कार्य
वह सापेक्षा है,
जो सापेक्ष है
वह वस्तुतः
न ही सत है,
न असत ही,
वह है केवल
प्रतीति मात्र ।


अतएव कार्यभूत
यह दृश्यमान
सापेक्ष जगत
न सत है, न असत
न अस्ति है,
न नास्ति
न शासवत है,
न ही उच्छेद
तो क्यों करते हैं
हम इसमे भेद?

सत तो है -
'अव्यक्त',
हाँ अव्यक्त जो
है अनिर्वचनीय
और अव्याख्येय
हमारे लिए तो
सर्वथा अज्ञेय ।
तो क्या वाणी को
विराम दिया जाय?
क्या चिंतन को
विश्राम दिया जय?
क्या लेखनी को
आराम दिया जाय?
नहीं, विलकुल नहीं
चिंतक रुक नहीं सकता
किसी दबाव मे वह
झुक नहीं सकता,
वाणी भी आखिर
मौन कब तक रहेगी?
लेखनी बेमौत नहीं मारेगी

चिंतक रो सकता है
पर सो नहीं सकता,
चिंतक ऊसर मे भी
फसल लहलहाता है
उर्वर बीज बोता है
समाज का सारा बोझ
अपने सर ढोता है ।
क्षणभंगुर दुनिया मे
यहाँ अमरत्व कहाँ?
चिंतक अमर नहीं होता
'चिंतन' अमर होता है
चिंतक का नाम ढोता है ॥

डॉ जयप्रकाश तिवारी