Thursday, October 6, 2011

किंकर्त्तव्यविमूढ़ता

किया था वादा मैंने माँ से
करूँगा पूरी अंतिम इच्छा.
हो गयी खुश माँ स्नेह से बोली,
ले चल अब गंगाघाट मुझे,
वहीँ लूँगी मै राहत की श्वांस.

कैसे समझाऊं माँ को अब?
माँ! यह तेरे जमाने की नहीं
यह मेरे ज़माने की गंगा है.
जो थी कभी पवित्र नदी
अब नाले से भी गंदा है.

माँ! कैसे झोक दूं तुझे इस
सडती - बदबू सी नाली में?
जायेगी बिगड़ बिमारी वहाँ.
जीवनदायिनी,प्राणप्रदायिनी नहीं,
जीवन हरणी, संकट भरणी है.

विश्वास नहीं होगा माँ को,
हो भी कैसे? पूजती जो आयी है,
इसकी निर्मलता को, पवित्रता को.
मिला है उसी जल में,संतोष-परितोष.
महीनों बाद आज आया है उसे होश.

कैसे उसे ले चलूँ? कैसे छोड़ दूं?
वादा इतनी जल्दी कैसे तोड़ दूं?
माँ ने माँगा भी तो क्या माँगा?
कितना सस्ता सौदा माँगा?
कितना महंगा सौदा मांगा?

कैसे कह दूं माँ! असमर्थ हूँ मैं ?
कैसे कह दूं, बदल गयी अब गंगा?
कहीं खो न दे वह होश फिर अपना?
क्या होगा, टूटा जो उसका सपना?