Sunday, April 22, 2012

यादें



आज फिर
जाने क्यों
तेरी याद आई
तो बहुत.. आई.

खो गए थे
जो पुराने शब्द.
अपने साथ वे,
भावार्थ लाये
बहुत कुछ
निहितार्थ लाये.

जनता हूँ
खो गयी है
पहचानने की
शक्ति तेरी.

जानकर
यह स्थिति
मेरे अनुराग,
मेरी प्रीति
और भक्ति
और भी
बढ़ गयी है.

Friday, April 20, 2012

वार्तालाप हुई जब हिंदी से


क)  जिज्ञासा :

हे काव्य! तुम्हारा गुरु है कौन?

कुछ तो बोलो, क्यों हो तुम मौन?
कहाँ से पाई सूक्ष्मतर दृष्टि यह?
अतल - वितल तेरे रहता कौन?

कैसे करती शब्द श्रृंगार  तुम?
यह विरह कहाँ से लाती हो?
रहस्य रोमांच का सृजन कैसे?
पल भर में तुम कर जाती हो.

कभी लगती  हो तुतलाती  बच्ची,
कभी किशो री  बन जाती हो,
क्षणभर में तू रूप बदलती कैसे?
कैसे कुलांच भर जाती हो?

तेरी एक झलक पा जाने को,
कुछ नयन ज्योति बढ़वाते हैं.
कुछ तो हैं इतने दीवाने,
नित नए लेंस लगवाते हैं.

नजर नहीं आती फिर भी तुम,
क्या इतनी भी सूक्ष्म रूप हो?
दिखती फिर तुम सूर को कैसे?
तुलसी घर चन्दन क्यों घिसती हो?

बैठ के कंधे पर तुम रसखान के,
कबिरा  के संग खूब घूमती हो.
रास रचाए तू  संग बिहारी के,
घनानंद प्यारे को क्यों छलती हो?

नीर की बादल बनी है महादेवी,
यशोधरा गुप्त है दिनकर उर्वशी,
प्रसाद है खेलत संग कामायनी,
पन्त है छेड़े चिदंबरा रागिनी.

वीणा बजाये निराला के संग तू,
मीरा को खूब तू नाच नचाये है,
कालि के मेघ को नभ में नचावत,
श्याम का चेतक धूम मचाये है.

केशव बैठ के केश निहारत,
उम्र बढ़ी पर कवि ना कहायो,
रचा ग्रन्थ को हठ्वश अपने,
कठिन काव्य के प्रेत कहायो.

ग्रन्थ लिखाए तू व्यास के हाथ से,
राधा की तन पर कान्हा नचायो है,
जाना रहस्य ना कोई तुम्हारा,
उम्र तलक तुम नाच नचाये है.

क्या तुम महेश की मानस पुत्री?
अथवा विरंचि  की भार्या हो?
या हो वाग्दत्ता बाल्मीकि की,
या हिंद की लाडली आर्या हो?

क्या 'क्रौंच आह' से जन्म तेरा?
अश्रु स्वरों तेरी धार बही?
अगणित है बधिक अब घूम रहे,
क्यों ना उनके अंतर कोई आह उठी?

याद करो! तू ने ही कहा था -
"सन्देश नहीं मै स्वर्ग लोक का लाई,
इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आई."
संकल्प तेरा क्यों टूट रहा अब?
ये कौन सी रीति तुने अपनाई है,
सोचा बहुत पर सोंच न पाया.
बात क्या तेरे ह्रदय में समायी है?

जान न पाया तुम्हे अब भी मै,
गुरूद्वारे का अब तो मार्ग बताओ.
हे काव्य तुम्हारा गुरु है कौन?
कुछ तो बोलो, क्यों हो तुम मौन?
 

ख)   उपालंभ :

छोड़ो परिचय की बातों को,
माँ-बाप बिना कोई परिचय क्या?
मैं क्या बोलूं ? मैं क्यों बोलूं?
तेरे आगे अपना मुंह क्यों खोलूं?

भारत भूमि का नाम भूल गए,
इंडिया - इंडिया अब जपते हो.
भूल गए जब प्यारे हिंद को,
हिंदी को कब पहचानोगे?

वेलकम - वेलकम तो खूब करते हो,
वन्देमातरम्, सुस्वागतम कभी कहते हो?
मैं क्या बोलूं ? मैं क्यों बोलूं?
तेरे आगे अपना मुंह क्यों खोलूं?

जब पूछा है तो कुछ कहना है,
पड़ रहा मुझे देना परिचय.
आह! निज गृह में ही अपना परिचय
परिचित को भी देना होगा परिचय?

परिचय यह, क्या सजा से कम है?
बदल गए मेरे घर वाले, यही बड़ा गम है.
जैसे रही न सदस्या इस घर की
क्या यह देश निकाले से कम है?

सॉरी - सॉरी कह करके फिर
दिन - रात वही सब करते हो.
मैं क्या बोलूं ? मैं क्यों बोलूं?
तेरे आगे अपना मुंह क्यों खोलूं?


ग)  परिचय:

मैं तो हिंद की बेटी हूँ
और नाम मेरा है हिंदी.
भाल पर इसके सुशोभित है जो
हूँ मैं वही चमकती बिंदी.

यहीं से पाया नेह और दीक्षा,
यहीं से पाई प्रथ्निक शिक्षा.
पैदा हुयी संस्कृत की गोदी
पालि के संग खेला है.

ये प्राकृत और अपभ्रंश तो
मेरा ही पुराना चोला है.
जब भारत बन गया हिंदुस्तान
नाम पड़ गया मेरा हिंदी.

जब हुयी सयानी, बड़ी हुयी
ब्रज - अवधी चोला में खड़ी हुयी.
फिर निखर जो रोप्प, वह खड़ी बोली
पद्य के संग - संग अब गद्य चली.

मैं तो हिंद की बेटी हूँ
और नाम मेरा है हिंदी.
भाल पर इसके सुशोभित है जो
हूँ मैं वही चमकती बिंदी.

Sunday, April 15, 2012

थका हुआ मन

मन की बात न पूछो तुम,
कितनी बड़ी इसकी है दुम?
अकेला मन यह जाता ऊब,
और देख भीड़ घबराता खूब.

ऊब अकेलापन से ही यह
अरमान सजाकर दुई हुआ.
कुछ बढ़ा चढ़ा इतना अनुराग,
देखते - देखते ही छ: चिराग.

अब भीड़ देखकर चिढ़ता है
रह रह कर देखो कुढ़ता है.
दौड़ा पहले चिकित्सालय में
अब दौड़ रहा विद्यालय में.

दोनों ही जगह है लूट मची
जिसपर उसका कोई जोर नहीं.
इस आपा धापी में हुआ पस्त
हो गया जीवन में अब त्रस्त.

नोक - झोक तो थी पहले ही,
अब तू तू - मैं मैं का अभ्यस्त.
लड़ते लड़ते बाहर और भीतर
सचमुच ही हो गया है पस्त.


चिढकर हुआ पलायित घर से
सबसे सुन्दर है अकेलापन.
शांत बैठ देखो अब दर्पण.
है यहाँ नहीं अब कोई गम.


        डॉ. जय प्रकाश तिवारी
        संपर्क: ९४५०८०२२४०

Saturday, April 14, 2012

रचना शीर्षकों का ध्वन्यार्थ

                  
मै हूँ ऐसा दीप जो सतत स्नेह में जलता रहा.
लेकिन मेरी पहचान इस रूप में नहीं हो सकी.

सोचा चलो दीवाली अबकी कुछ यूँ मनाते हैं.
स्नेह की फुलझड़ी से ही असमंजस जलाते हैं.

क्यों आवश्यक है यह परिचर्चा यहाँ इस मंच पर?
वे अच्छी तरह जानते हैं कि वेदना हिंदी की क्या है?

हिंदी है एक पूरी संस्कृति, इसको स्वीकार तो करते हैं,
लेकिन क्या कहूँ, त्रिभुज का वीभत्स कोण तो यही है,

वह चिल्लाती है- 'हिंद की बेटी हूँ मै'. परन्तु ये मानते कहाँ?
कल तक थी जो अपराजिता, आज वह हिंदी अपनी हार गयी.

खेल यह शब्द और अर्थ का नहीं, खेल है कुत्सित राजनीति का.
यह हार नहीं हिंदी की हार, यह तो है राष्ट्रीय अस्मिता की हार.

                                                                 
                                    - डॉ. जयप्रकाश तिवारी
                                     संपर्क : 9450802240


Friday, April 6, 2012

भाई मेरे ! मरो नहीं !


कहना चाहता  हूँ मै
देश पर मर मिटने का 
वक्तव्य देने वालों से -
भाई मेरे !  मरो नहीं !

जीवन यह अमूल्य है
जीओ, दीर्घजीवी बनो!
लेकिन जीकर दिखाओ
अब पीठ मत दीखाओ.

दीपक हाथ पर रख कर 
दूसरों को राह मत दिखाओ.
हम स्वयं केंगे अनुसरण 
राह सीधी चल के तो दिखाओ.

हथेली पर सरसों मत उगाओ,
खेतों में उगी तिलहन और 
दलहन की फसल बचा लो.
उगने वाला किसान तड़प रहा
उसे कुछ दवा तो दिला दो.

देश पर मर मिटने का कोरा 
वक्तव्य देने से कुछ नहीं होगा.
मरते हुए देश को बचा लो.
घुटते - सिसकते संविधान को 
अपने दायित्व और सदाचरण की
दो घूँट पयस्वनी तो पिला दो.

हथेली पर दही जमकर 
अब तुम यहाँ खड़े क्यों हो?
जनता हूँ रणछोड़ हो तुम!
हाथ में रस्सी लिए खड़े क्यों हो?

अकर्मण्य हो तो बने रहो,
यहाँ शेखी तो मत बघारो.
जज्बातों में नहीं बहनेवाला कोई.
है वादा, साथ निभाएंगे भरपूर
पहले जो कहते हो कर के तो दिखा दो.
आदर्श स्वयम बन कर तो दिखा दो.

            - डॉ. जयप्रकाश तिवारी 

Sunday, April 1, 2012

अँधेरी गुफा को तुम दीपक बना लो


प्रकाश  में  साया  तो  सब देखते हैं,
सफेदी  में  धब्बा तो  सब  देखते हैं.
धब्बे  में  अंकित, धवल बिम्ब देखो,
अँधेरे  में  किरण की एक बिम्ब देखो.
अँधेरी गुफा को, तुम  दीपक बना लो.
उस साए में नन्ही किरण जो समायी,
सम्हालो  उसी  को, उसी को बचा लो.
मिटेगा गम ये सारा, ख़ुशी को बचा लो.
अँधेरी  गुफा  को  तुम  दीपक  बना लो.

स्मृति की हो बाती,समर्पण का घी हो ,
जिजीविषा की अग्नि, दीपक जला लो.
लिपियों की भाषा तो सभी गुनगुनाते,
सन्नाटे के गीत - गजल को तुम गा लो.
अँधेरी गुफा  को,  तुम  दीपक  बना लो.
सुनो बधिरों के कानों से, प्रकृति के गान,
देखो सूरों के नयनों से, संस्कृति महान.
मिटेगा गम ये सारा, ख़ुशी को बचा लो.
अँधेरी गुफा  को,  तुम  दीपक  बना लो.

Friday, March 16, 2012

बसंत क्यों हुआ 'अ-संत'



थी प्रतीक्षा जिस बसंत की
वह बसंत खुश होकर आया.
सौगातों की गठरी को भी
साथ में अपने लेकर आया.
फूली सरसों-अलसी-अरहरी
मटर में छेमी खूब लहराया.

परन्तु,..........
बाँट सका न हाथ की झोली.
छिनी किसी ने हाथ की झोली.
अरे! ...अरे! ....यह कौन..?
जिसने दिन में डाका डाला.
चूसा जिसने माँ का सब खून.
अरे! यह तो धरा का प्यारा बेटा.
अरे! कितना यह है खोता बेटा?
पूत लाडला यह तो प्रकृति का.
कारण यही, प्रकृति में विकृति का.

यह देख बसंत को गुस्सा आया
मन ही मन जल - भून उठा वह.
उन पर, जो लोभी था मानव.
देने का दंड किया निश्चय उसने,
छोड़ा निःश्वांस एक जोर से उसने.
सूख गयी सरसों की सब वे
पुष्प दल-पुँज, जो पीले - पीले.
सूख गयी गेहूं की बाली,सूखी 
असमय, अलसी-मटर-अरहरी.

उधर आम की मंजरियों पर
कीट- पतंग कुछ ऐसे छा गए,
महुआ की उस बाग़ में जैसे
बिन पिए सभी मस्ती में आ गये.
चूने लगे टिकोरे सब असमय
सुबह - दोपहरी या हो शाम.
बाग़ का रखवाला घबराया,
छिना उसका सब चैन, आराम.
अपने छाती को दोनों हाथ दबाया,
मुख से निकला, हाय... राम!!..

आया जो इसबार बसंत,
यह नहीं, 'बसंत'.
बसंत वेश कोई असंत है आया.
बोला बसंत -
मैं ही बसंत, मैं हूँ बसंत,
लेकिन तुम मानवों ने मुझको
बना दिया, सचमुच - 'अ-संत'.