वह बसंत खुश होकर आया.
सौगातों की गठरी को भी
साथ में अपने लेकर आया.
फूली सरसों-अलसी-अरहरी
मटर में छेमी खूब लहराया.
परन्तु,..........
बाँट सका न हाथ की झोली.
छिनी किसी ने हाथ की झोली.
अरे! ...अरे! ....यह कौन..?
जिसने दिन में डाका डाला.
चूसा जिसने माँ का सब खून.
अरे! यह तो धरा का प्यारा बेटा.
अरे! कितना यह है खोता बेटा?
पूत लाडला यह तो प्रकृति का.
कारण यही, प्रकृति में विकृति का.
यह देख बसंत को गुस्सा आया
मन ही मन जल - भून उठा वह.
उन पर, जो लोभी था मानव.
देने का दंड किया निश्चय उसने,
छोड़ा निःश्वांस एक जोर से उसने.
सूख गयी सरसों की सब वे
पुष्प दल-पुँज, जो पीले - पीले.
सूख गयी गेहूं की बाली,सूखी
असमय, अलसी-मटर-अरहरी.
उधर आम की मंजरियों पर
कीट- पतंग कुछ ऐसे छा गए,
महुआ की उस बाग़ में जैसे
बिन पिए सभी मस्ती में आ गये.
चूने लगे टिकोरे सब असमय
सुबह - दोपहरी या हो शाम.
बाग़ का रखवाला घबराया,
छिना उसका सब चैन, आराम.
अपने छाती को दोनों हाथ दबाया,
मुख से निकला, हाय... राम!!..
आया जो इसबार बसंत,
यह नहीं, 'बसंत'.
बसंत वेश कोई असंत है आया.
बोला बसंत -
मैं ही बसंत, मैं हूँ बसंत,
लेकिन तुम मानवों ने मुझको
बना दिया, सचमुच - 'अ-संत'.
sahaj....samayik kavita....achchi lagi.
ReplyDeleteबोला बसंत -
ReplyDeleteमैं ही बसंत, मैं हूँ बसंत,
लेकिन तुम मानवों ने मुझको
बना दिया, सचमुच - 'अ-संत'.
बहुत सुंदर भाव की प्रस्तुति,अच्छी रचना.....
MY RESENT POST...काव्यान्जलि ...: तब मधुशाला हम जाते है,...
बेहद गहन भावाव्यक्ति।
ReplyDeleteमानव ने प्रकृति के साथ जो खिलवाड़ किया है उसकी सजा भी उसे ही भुगतनी पड़ेगी...सार्थक प्रस्तुति!
ReplyDeleteअपने स्वार्थ के लिए मानव प्रकृति को नष्ट करने पर तुला हुआ है ... सुंदर रचना ...
ReplyDeleteप्राकृति की चेतावनी को इंसान अनदेखा करेगा तो क्या पता क्या और होने वाला है ..
ReplyDeleteआया जो इसबार बसंत,
ReplyDeleteयह नहीं, 'बसंत'.
बसंत वेश कोई असंत है आया.
बोला बसंत -
मैं ही बसंत, मैं हूँ बसंत,
लेकिन तुम मानवों ने मुझको
बना दिया, सचमुच - 'अ-संत'.
....बहुत गहन और सटीक अभिव्यक्ति..आभार
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Thanks to all visitors for their kind visit and valuable comments.
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