Sunday, October 3, 2010

परिभाषा न्यायाधीश की.

आज फिर याद आयी
कहानी मुंशी प्रेमचंद की.
एक बार फिर प्रमाणित हुयी
परिभाषा - 'न्यायाधीश'की.

पंच होता है - 'परमेश्वर'
उसकी जाति उसकी आस्था,
उसका मजहब उसका धर्म,
है मात्र और मात्र - 'न्याय'.

नहीं कर कर सकता वह
किसी के भी साथ - 'अन्याय',
क्योकि न्याय है- 'समग्रप्रेम',
न्याय है एक - 'आराधना'

न्याय है - 'एक साधना'
न्याय है एक - 'उपासना',
न्याय है इन के मूल में 'सना',
चाहे जैसी भी हो - 'संवेदना'.

न्याय कुर्सी पर बैठा इंसान
नहीं होता हिन्दू या मुस्लमान,
वह होता केवल - 'न्यायी इंसान,
'पंच परमेश्वर' और 'न्याय भगवान्'.

Saturday, October 2, 2010

बापू के नाम खुला पत्र

बापू! मै भारत का वासी, तेरी निशानी ढूंढ रहा हूँ.
बापू! मै तेरे सिद्धान्त, दर्शन,सद्विचार को ढूंढ रहा हूँ.
सत्य अहिंसा अपरिग्रह, यम नियम सब ढूंढ रहा हूँ.
बापू! तुझको तेरे देश में, दीपक लेकर ढूंढ रहा हूँ.

कहने को तुम कार्यालय में हो, न्यायालय में हो,
जेब में हो, तुम वस्तु में हो, सभा में मंचस्थ भी हो,
कंठस्थ भी हो, हो तुम इतने ..निकट - सन्निकट...,
परन्तु बापू! सच बताना आचरण में तुम क्यों नहीं हो?

उचट गया मन इस समाज से, देखो कितनी दूषित है.
रीति-नीति सब कुचल गयी, नभ-जल-थल सभी प्रदूषित है.
घूमा बहुत इधर उधर, मन बार - बार तुमपर टिकता है.
अब फिर आ जाओ गांधी बाबा, मुझे तेरी बहुत जरुरत है.

संत भगीरथ ने अपने पुरखों को, गंगाजल से तारा है.
तुम भी तो एक 'राजसंत' थे, हमने बहुत विचारा है.
तुम्ही भगीरथ बन जाओ, अब तुम्हे गंगाजल लाना है.
नई पौध को सिंचित करके, एक भारत नया बनाना है.

अपनी गंगा तो सूख सी गयी, पर नहीं मानव की भूख गयी है.
सूख गयी थी पहले ही सरस्वती, अब गंगा - यमुना की बारी है.
देखो गंगोत्री- जमुनोत्री-गंगासागर को, वहां लगा ग्रहण कुछ भारी है.
दशा सुधरने में हम अक्षम, कुछ कर न सके, अफ़सोस यही लाचारी है.

एक आस विश्वास तुम्ही पर, कुछ हक़ है, तभी पुकारी है.
थोडा सा हूँ जिद्दी मै भी, अभियान प्रदूषण मुक्ति की ठानी है.
अस्त्र- शस्त्र है मात्र लेखनी, उसी के बल जंग ये जीती जानी है.
बिना शस्त्र तो तुम भी लड़े थे, बड़ों - बड़ो को चित किये थे .

देखो! मै भी शस्त्र हीन हूँ, तुम्हे मेरा साथ निभाना है.
अब तुम्ही भगीरथ बन जाओ, अब तुम्हे गंगाजल लाना है.
गंगाजल जो तुम लाओगे उस धारा को गोमुख से हम जोड़ेंगे.
गंगा-यमुना नहीं सूखने देंगे, जलधारा अजस्र स्रोत से जोड़ेंगे.

दूषित नीति मिटायेंगे, सब कलुष - कलेश भगायेंगे.
नयी उमंगें, नई तरंगे लायेंगे ; अब नया सवेरा लायेंगे.
अब तुम्ही भगीरथ बन जाओ, अब तुम्हे गंगाजल लाना है.
जल्दी गंगाजल लेकर आओ, यह अनुरोध हमारा है.
यह अनुरोध हमारा है. ....हाँ ... यह अनुरोध हमारा है.

Wednesday, September 29, 2010

न्याय है - प्रेम का ढाई अक्षर

प्रेम का पवित्र ढाई आखर
न सीख पाने वाले भद्रजन,
जाने कैसे इतनी जल्दी
सीख लेते हैं - चार अक्षरों
वाला यह शब्द - "नफरत".

सत्य का अनुपम सौन्दर्य
देख नहीं पाने वाले उन
नेत्रयुक्त अंधों को यह दुनिया
कैसे दिखती है इतनी हसीन?

सत्य में, प्रेम में, शिव में, राम में
ढाई अक्षर को नहीं ढ़ो पाने वाले :
असत्य की, नफरत की, हिंसा की
भारी - बोझिल गठरी कैसे ढ़ो लेते हैं?

शिवम के सत्य को नकारने वाले
किस सौन्दर्य की तलाश करते हैं?
क्या उन्हें पता नहीं क़ि जो सत्य है
वही शिव है, शिव स्वरुप ही प्रेम है.

प्रेम ही शिवम है, सत्य है और
प्रेम का प्रसार ही सुन्दरम है.
सत्य से निःसृत प्रेम ही न्याय है -
न्याय श्रेष्ठ ही नहीं, श्रेष्ठतर भी है.

इसलिए हमें स्वीकारना चाहिए
अपनाना चाहिए इस न्याय को,
सत्कर्म को, सत्य के इस मर्म को.
मानवता और मानवीय धर्म को.

Tuesday, September 28, 2010

हिंदी समर्थ अपनी है भाषा

हम हिंदी पखवाड़ा मानते क्यों?
उसे धूप - दीप दिखलाते क्यों?
क्या हिंदी भी है मृत एक भाषा?
ऐसा भोंडा ढोंग दिखलाते क्यों?

यदि हिंदी से है गहरा नाता फिर
कार्यालयों को यह क्यों नहीं भाता?
अधिकारी नेतागण जो जिम्मेदार
उन्हें प्रेम बस इंग्लिश से .
हिंदी से कैसा ..नाता.....?

हिंदी की बात जो करते हैं
वे झूठी शान क्यों गढ़ते हैं?
कसमे खाते जो हिंदी की
औलाद कान्वेंट में पढ़ते हैं.

जो अक्षत - पुष्प चढाते हैं
हिंदी से स्नेह दिखलाते हैं
स्नेह यदि सच्चा है तो आओ
हिंदी में ही बात... करे...

एक नई नई शुरुआत करे
हिंदी में पत्र व्यवहार करें
हिंदी साहित्य से प्यार करें.
मानस का नित पाठ करें.

हिंदी समर्थ अपनी है भाषा
जाने फिर भी क्यों है निराशा
लिखे शोध हिंदी भाषा में
विपुल शब्द भण्डार है इसमें.

Sunday, September 26, 2010

भाषा हो हिंदी और देश हिंदुस्तान

भाषा हो हिंदी और देश हिंदुस्तान
देखो कितना सुंदर पवित्र है नाम.
धरा है इसकी उर्वरा कितनी?
है प्रकृति की क्षमता जितनी.

सतत खिले हैं इसी धारा पर
प्रज्ञान - विज्ञानं के सुमन निरंतर
झाँक लो चाहे गगन में ऊपर
या फिर देखो मही के अन्दर.

सागर को भी मथ डाला है
ऐसा उदाहरण और कहाँ है?
हिम शिखर पर किया आराधना
दूजा मिशाल ऐसी कहाँ कहाँ है?

करके सरल इस ज्ञान राशि को
हिंदी अब अलख जगाती है.
गहन - गूढ़ उपनिषद् वेदांत को
सहज लोक भाषा में समझती है.

हर भाषा को उद्भाषित करता
हिंदी को भी विकसित करता
फिर भी एक कष्ट है भारी
हिंदी बन न सकी भाषा राष्ट्र की
लग गयी नजर उसे ध्रितराष्ट्र की.

कौन उसे समझाएगा अब?
वीणा कौन बजायेगा अब?
डोर हाथ में अब है जिसकी
जाने क्यों उसकी पैंट है खिसकी?

हिंदी दिवस मानते हैं वे
हवा में हाथ लहराते हैं वे
आती है जब हाथ में बाजी
अंगूठा ही दिखलाते हैं वे.

Friday, September 24, 2010

अक्षर से है सृष्टि विकास

कविता
और गीत
तो अन्यतम
साधना है -
शब्दों का.

और शब्द?
शब्द तो
आराधना है -
अक्षरों का.

इन अक्षरों
और शब्दों के
युग्म ने ही रचा है -
साहित्य, सदग्रंथ
और सृष्टि ग्रन्थ .

ये अक्षर ही हैं
जिन्हें हम कहते हैं
- "पञ्च महाभूत"

'अ' से अग्नि,
आ' से आकाश
'ग' से गगन,
ज' से जल
'स' से समीर,
'प' से प्रकाश

क्या इन्ही से
नहीं हुआ है
इस सृष्टि
का विकास

रचा सृष्टि ने
मानव को
मानव की अपनी
अलग सृष्टि है.

अपनी - अपनी
व्याख्या है अब
परख - परख
की अपनी दृष्टि.

धर्म नहीं बदनाम करेंगे

आज पितृपक्ष का पहला दिन है. यह कोई त्यौहार नहीं एक उपहार है. हम अपने लिए तो जन्मदिन से विवाह दिन.....न जाने और क्या- क्या मानते है आज अपने अग्रज, अपने पूर्वजों को तो याद कर लिया जाय जिन्होंने इतनो अच्छी विरासत...संस्कृति, संस्कार और विज्ञानं.. प्रदान किया हमारी सुख शांति और ऐश -ओ-आराम के लिए. पर सच बोलिए हम हों या आप कितना याद करते हैं उन्हें........? आज से प्रारंभ हुआ पितृपक्ष उन्ही के लिए है.... इस व्यवस्था को जिसने भी बनाया हो, लागू किया हो, बड़ा उपकार किया मानव समाज पर. पूर्वजो को सबसे उत्तम श्रद्धांजलि तो यह होगी की हम पुत्र - पुत्र - प्रपौत्र...के रूप में ऐसा कोई काम न करें जिससे उनके नाम के साथ हमारा नाम जोड़कर बदनाम किया जाय. यह संकल्प आज बहुत ही महत्वपूर्ण होगा. श्रद्धांजलि देंगे हम उनको और लाभ होगा हमारा. विकास होगा हमारा, प्रगति और उन्नयन होगा हमारा. तो इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है.............आइये याद करते हैं अपने प्रथम पूर्वज को ...... जिन्हें हम ईश्वर भगवान्...खुदा ...जो भी नाम दे..

आखिर इस सच्चाई को
हम समझ क्यों नहीं पाते ?
धर्म - कर्म - कला - संगीत
गीता - पुराण - कुरान.
दर्शन -चिंतन -ज्ञान - विज्ञानं
सभी में ज्ञान प्रभु का है.


नज्म - ग़ज़ल -अफसाना
गीत - भजन - कव्वाली
तर्ज अलग है राग अलग
पर भाव सभी में प्रभु का है.


कैसा - कैसा नाम दिया है
हमने प्रभु तुमको बाँट दिया है.
कैसे हैं नादान मूर्ख हम
तुमको भी यह संताप दिया है.


मगर आज जब बैठ गए हैं
करने चर्चा मेरे मालिक !
अबकी सद्ज्ञान हमें दे दो
कितनों को तो हर बार दिया है.


हम अपना उत्कर्ष करेंगे
चिंतन और विमर्श करेंगे
अब तक चाहे जितना खोया
अब से हम उत्थान करेंगे
धर्म नहीं बदनाम करेंगे
हाँ धर्म नहीं बदनाम करेंगे.