पागल पथिक मैं पंडित हूँ
निज हाथों से ही दंडित हूँ
दुनिया को समझ नहीं पाता
इतना जर्जर और खंडित हूँ,
फिर भी है पौरुष शेष बहुत
हो जाऊँ कैसे शून्य हृदय?
रस नेह भरा है पोर - पोर
जाता छ्लक मेरा यह हृदय
माथे से लगा लूँ चरण धूलि
सुपात्र अगर कोई मिल जाये
उसे त्याग दूँ सूखे पत्ते जैसा
कुपात्र अगर कोई हो जाये,
कोमल हृदय इतना है मेरा
हर आँसू देख पिघल जाता
है कठोर बतलाऊँ कितना
रिश्तों की परवाह न करता
यदि बात समझ मे आ जाये
तो तप्त चट्टान, मैं पर्वत हूँ
यदि बात समझ मे आ जाये
सुरभित सा शीतल शर्बत हूँ।
यह नयी नहीं है व्यथा कोई
सदियों से यही करता आया
संवेदना की सुंदर कुटी मेरी
वेदना के संग - संग रहता हूँ,
यह बीड़ा तब से उठा रखी है
जीवन को जब से समझा है.
जन्म- मृत्यु छोर हैं उसके
जीवन को किसने समझा है?
सदियों से यही तो होता आया
जहर मिला, कभी तीर मिला
आग मिली, कभी पीर मिला
घात-प्रतिघात औ नीर मिला,
कभी भी, हार नहीं मानी मैंने
चल रहा है अबतक सिलसिला।
ब्रूनों, सुकरात, कौटिल्य कहो
तुलसी, कबीर या बुद्ध कहो
कहो महावीर या पग की घास
मैं 'जय' हूँ, इनका ही 'प्रकाश' ।
अरे तेरी भी औकात है क्या
जो सजा मुझे कभी दे सके
मैं नहीं किसी से डरता हूँ
डरता हूँ केवक एक प्रभु से ,
मेरी कृष्ण कहानी कोई नहीं
जो भी है वह राम कहानी है
सरल नहीं मेरी राम कहानी
व्यथा मेरी कितनों ने जानी?
छोड़ो, क्या फर्क पड़ता इससे
मैंने हार नहीं अब भी मानी।
हाँ, पागल पथिक मैं पंडित हूँ
निज हाथों से ही दंडित हूँ॥
डॉ जयप्रकाश तिवारी
सुंदर भाव
ReplyDeleteआभार
Deleteबहुत सुन्दर उद्गार
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