कौन तुम? क्यों खड़े हुए हो
इस तरह से मौन हो कर ?
कौन तुम? क्यों अड़े हुए हो
इस तरह से त्रिभंग हो कर ?
आ भी जाओ खुला है द्वार
यहाँ भेद नहीं कुछ मेरे द्वार
मान है, सम्मान है, अपमान है
धिक्कार है, फटकार है, सम्मान है
ये समाज से मिले हुए उपहार हैं
पर ये है सभी मेरे लिए ही
तेरे लिए केवल यहाँ सत्कार है.
अथिथि हो शुभ सत्कार तेरा
कुछ भी कहो आभार तेरा
यूँ अभी टक क्यों खड़े हो ?
जिद पे अपनी क्यों अड़े हो?
कौन हो तुम - छाया ? प्रतिछाया ?
आत्मा - परमात्मा - प्रेतात्मा ?
सत्य हो तुम ? या हो आभास?
या अंतर्मन की कोई आस ?
हो कोई चाहे भी तुम
गर आये हो तो आ जाओ
मेरी उलझन में हाथ बताओ
हो सके तो राह दिखाओ
मैं तो हूँ उलझन में कब से
सोच में डूबा हूँ तब से
जब से देखा है यहाँ - चीत्कार
व्यभिचार, भ्रष्टाचारों का व्यापार
कमजोर नहीं, न साहस कम है
नहीं कोई मरने का डर है
पर निरर्थक यूँ नहीं चाहता हूँ मरना
सोच रहा हूँ यही निरंतर
क्या मुझे अब प्रारंभ करना?
अब आये हो तो आ जाओ
कुछ उलझन तो सुलझा जाओ
पर तुम क्या मेरी मदद करोगे
तुम तो स्वयं उलझे लगते हो।
डॉ जयप्रकाश तिवारी
http://bulletinofblog.blogspot.in/2014/09/blog-post_14.html
ReplyDeleteस्वयं उलझा क्या सुलझेगा !
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