आज फिर एक ‘नन्हा-कबीर’ पाया गया
लहरतारा तालाब मे कमल-पत्र पर नहीं
कूड़े के ढेर पर प्लास्टिक मे लिपटा हुआ
तहजीब के सम्मानित शहर लखनऊ मे ।
क्या है यह, किसी का प्यार?
अथवा किसी नासमझ युग्म का पाप?
अथवा आधा-प्यार, आधा-पाप?
आज बन गयी है मानसिकता जो
हर बात मे ही फिफ्टी-फिफ्टी की।
पाप तो संभव है आधा-अधूरा भी, किन्तु
क्या प्यार भी संभव है आधा-अधूरा?
नहीं, नहीं हो सकता यह आधा-अधूरा।
यह जब भी होगा, जहाँ भी होगा पूरा होगा
पूर्ण रूप मे होगा, सम्पूर्ण रूप मे होगा॥
प्यार-प्रेम तो वही है जो पूर्ण है
जो कर्तव्य है, जो दायित्व है
जो फर्ज है, त्याग है, उत्सर्ग है
यहाँ इसमे तो जूझना ही जूझना है
पलायन के लिए इसमे स्थान कहाँ?
जो सना है तन मे, सनातन है
जो सना है मन मे, वह द्वंद्व है
जो सना मस्तिष्क मे, छल-छद्म है,
क्यों है वहाँ छल-छद्म और स्वार्थ?
क्योकि वहाँ तो भरी हुई हैं ऐषणाएँ
ना ना प्रकार की कुत्सित लोकेषणाएँ,
वित्तेषणाएँ और पुत्रेषणाएँ भी,
लेकिन यहाँ तो यह भी नसीब नहीं।
ये ऐषणाएँ ही विष हैं प्रेम के लिए,
ये ला पटकती हैं प्रेम को वासनाओं के
कपटपूर्ण छल-छद्म के धरातल पर।
इसी कुत्सित वासना की
परिणति है यह ‘नन्हा कबीर’॥
कौन है यह, हिन्दू या मुसलमान?
क्या बन पाएगा यह एक अच्छा इंसान?
केवल इंसान, ना हिन्दू, ना मुसलमान
नहीं मिल पाया था दो दिनों तक इसे
कोई पालक, कोई ‘नीरू’ और ‘नीमा’
दो दिनो बाद किसी स्नेहमयी माँ का
आँचल चटपटाया, कोई सूनी गोद
किसी किलकारी के लिए छटपटाई,
किसी ममत्व ने चित्कार-पुकार मचाई
तभी तो यशोदा-रूप मे नीमा सामने आई ।
अब यह यशोदा उसे कोई नाम देगी,
अपनी संस्कृति, अपनी पहचान देगी
परंतु यह कबीर क्या उस कोटर को,
कुरीतियों को निज हाथों जला पाएगा?
क्या यह शिशु दूसरा कबीर बन पाएगा?
चाहता हूँ यह नन्हा कबीर यही रहे
यहीं पले-बढ़े, उस युग्म को चिढ़ाता हुआ,
वह युग्म तब-तब तरसेगा, आहे भरेगा
जब-जब कबीर हँसेगा, रोएगा, चिल्लायेगा
अपनी कोई साखी – सबद – रमैनी गाएगा ।
वे आएंगे, छिपकर आएंगे, अश्रु भी बहायेंगे
बाहें उनकी फड़फड़ाएंगी, पर होठ सिले होंगे
जिह्वा को कसकर दांतों से दबाएँगे,
यह घटना नित्य प्रति ही होगी
वे तिल-तिल घुटेंगे, घिस-घिस मिटेंगे
खुल के रो भी तो नहीं पाएंगे
जीने की कौन कहे, मर भी नहीं पाएंगे
इस प्रकार अपनी करनी की सजा पाएंगे॥
डॉ॰ जयप्रकाश तिवारी
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