Saturday, September 14, 2013

बिंदी बन हिंदी के माथे चिपक जा


ओ मेरी संवेदना!
तू मौन क्यों है?
सता रही जो वेदना,
अरे! वह कौन है?
उठाओ अपनी दृष्टि
एक नजर देख तो सही,...
सामने यह खड़ा कौन है?
ओ मेरी संवेदना!
ओ मेरी संवेदना!!

हाँ, ठीक कहा तूने
तेरा स्थूल शरीर हूँ मैं.
लेकिन जगह ढूंढ इसमें
जहाँ कोई जख्म नहीं है.
फिर भी विहँस रहा हूँ यदि
तो इसका भी कारण है.
कहीं कोई है जो
इस दर्द का निवारण है.

दर्द मेरे पास भी
था दौड़ कर आया.
देख इतने जख्म यहाँ,
वह खुद शरमाया.
टिकने की कोई जगह
न अब तक उसने पायी.
पोर-पोर में अन्दर मेरे
वह बेदर्द समाई.

ओ मेरी संवेदना!
अब दर्द बाहर खड़ा
बड़ी देर से कराह रहा है.
पतीक्षा सूची का दर्द
धीरे-धीरे उसकी भी
समझ में आ रहा है.

ओ मेरी संवेदना!
कोई गीत बन कर
अधरों को तो खोल.
कोई गजल बन कर
अपने दिल के ताले खोल.
शब्दों की गठरी को तौल,
प्रज्ञान विज्ञान की भाषा बोल.
वेदनाओं की दरिया बहा जा.
कैक्टस में भी फूल खिला जा.
भावनाओं की पौध उगा जा.
हिंदी दिवस पर कुछ
अपना दायित्व तो निभा जा.

ओ मेरी संवेदना!
तू मौन क्यों है?
आज तू अल्पना बन कर
चहुँ ओर बिखर जा.
रंगोली बन कर फ़ैल जा.
कल्पना बन कर संवर जा.

ओ मेरी संवेदना!
यह कल्पना ही तो
सृजन का आधार है.
तेरी यह वेदना,
सृजन की वेदना है.
अल्पना-रंगोली-कल्पना
बन कर बाहर आ जा.
कोई प्यारी सी बिंदी बनके
हिंदी के माथे चिपक जा
ओ मेरी संवेदना!
ओ मेरी संवेदना!!

- डॉ. जय प्रकाश तिवारी
भरसर, बलिया

5 comments:

  1. है जिसने हमको जन्म दिया,हम आज उसे क्या कहते है ,
    क्या यही हमारा राष्र्ट वाद ,जिसका पथ दर्शन करते है
    हे राष्ट्र स्वामिनी निराश्रिता,परिभाषा इसकी मत बदलो
    हिन्दी है भारत माँ की भाषा ,हिंदी को हिंदी रहने दो .....

    सुंदर सृजन ! बेहतरीन रचना !!

    RECENT POST : बिखरे स्वर.

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  2. बहुत सुंदर..हिंदी भारत के मस्तक की बिंदी ही तो है

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  3. संवेदना सृजन का आधार है ओर किसी न किसी भाव में उतर ही आता है पन्नों पे ...
    सुन्दर काव्य का सृजन है ये रचना भी ...

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  4. दिल से आभार आप सभी मनीषियों का

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