Wednesday, September 18, 2013

क्या खो चुके हैं अर्थ अब?

दिवस बीते है आस में तेरी
और रजनी बीती यादों में,
सुभह दोपहरी शाम भी बीती
जो बचा गया फरियादों में.

वादों पर तेरे विश्वास किया
वादों ने बहुत निराश किया.
तूने तोड़े वादे अनेक बार
पर टूटी आस न एक बार.

इस आस में उपहास क्यों है?
इस आस में परिहास क्यों है?
इस आस में जो हास है
वह हास आज उदास क्यों है?

इस हास पर यह बंधन क्यों?
दीखता नहीं अब स्पंदन क्यों?
तेरी आस दे गयी वेदना क्यों?
खो गयी सारी संवेदना क्यों?

औरों के गम से भी कभी
ग़मगीन हो जाता था जो,
अपनों के दर्द को आज वह
अनुभूत क्यों करता नहीं?
 
 
- डॉ. जयप्रकाश तिवारी

3 comments:

  1. वादों पर तेरे विश्वास किया
    वादों ने बहुत निराश किया.
    तूने तोड़े वादे अनेक बार
    पर टूटी आस न एक बार...
    इस आस को बनाए रखना आसान तो नहीं होता पर प्रेम करने वाले कभी हार भी तो नहीं मानते .. अच्छी रचना ...

    ReplyDelete
  2. औरों के गम से भी कभी
    ग़मगीन हो जाता था जो,
    अपनों के दर्द को आज वह
    अनुभूत क्यों करता नहीं?

    मार्मिक पंक्तियाँ !

    ReplyDelete
  3. सुंदर सृजन ! बेहतरीन भावनात्मक रचना !!

    RECENT POST : बिखरे स्वर.

    ReplyDelete