Friday, June 15, 2012

शरणागत हुआ अंगुलिमाल




ओ जाने वाले युवक सुनो !
रुको ! ठहरो ! तुम परिचय दो ! 
सुन्दर ललाट झोली भी सुन्दर
पट के अन्दर तन भी सुन्दर.

दिखने में तुम जितने सुन्दर 
झोली का माल उतना सुन्दर?
धन छिपा रखे इस झोली में,
देते धोखा बन साधु - फकीर.

अभिजात्य वर्ग के लगते हो
कोई बड़ा व्यापारी लगते हो.
बड़ा व्यापार जो करता है
यह छद्मरूप वही धरता है.

छिप - छिप करते हैं व्यापार
कर देने से करते हैं इनकार,
मैं मार- पीट के छिन लेता हूँ
अपना  हक  यूँ  ले  लेता हूँ.

मैं लेता छिन उनका सब धन
क्यों धनी हैं वे और हम निर्धन?
तुम भी रख दो चुपचाप यहाँ
हीरे -मोती जो लाये हो.

लूंगा  अगर,  मैं  खुद  तलाशी,
लूँगा उंगली, यदि करूँ तलाशी.
रहना है तुम्हे यदि सही सलामत
रख दो माल, टालो ये  क़यामत.

देखकर, माला उँगलियों की
भय से काँप तुम जाओगे,
निकालो झट -पट हीरे मोती
नहीं तो बहुत पछताओगे.

नहीं दिया किसी को अवसर इतना 
जितना तुमको मैं दे रहा हूँ,
कभी दया नहीं करता हूँ मै,
जाने क्यों आज मैं कर रहा हूँ?

बोलते नहीं, झोली उतारते नहीं
क्यों मंद - मंद मुस्काते हो?
हो गाँव के वासी या शहरी हो?
शठ हो? कृपण हो? या बहरे हो?

देखो ! मेरे इस तरकश को
तीर -तलवार और भाले को,
इसी के बल करता हूँ राज
यह अरण्य है मेरा साम्राज्य.

अरे... रे..., क्या गजब हुआ?
अब आगे बढ़ते मेरे पाँव नहीं,
अब चाहे मैं जोर लगाऊं जितना
उठते धरती से मेरे पाँव  नहीं.

ओ युवक ! क्या जादूगर हो तुम?
क्या यह जादू की माया है?
मैं अभी निकालता धनुष - बाण
न समझो तुम मुझको लाचार.

अरे..रे ...कहाँ गए मेरे सब तीर?
क्यों खाली हो गया मेरा तुणीर?
ठहरो !  तलवार  उठाता  हूँ,
तेरी  गर्दन  अभी   उडाता हूँ.
अरे..तलवार भी अकड़ गयी क्यों अब?
अब संग छोड़ रहे क्यों आयुध सब?
क्या सामने वाला कोई महापुरुष?
हाँ, हाँ. लगता है कोई दिव्य पुरुष.

मैं रगड़ आँख फिर देखता हूँ
वह तो जस का तस है खडा हुआ,
भाल पर उसके नहीं कोई भय
निश्चिन्त खडा, एकदम निर्भय.

जैसे जीवन से कोई मोह नहीं
धन जाने का भी क्षोभ नहीं,
मन में उसके हलचल ही नहीं
कहीं से भी, वह विकल नहीं.

मन में विचार क्यों आता है
जैसे वह मेरा मनमोहन हो,
खो गए थे जो इस जंगल बीच
जो कभी गाय चराया करते थे
माखन -मिसरी खाते थे नित.

नहीं - नहीं मुझको भरमाओ
ओ युवक बढ़ो ! मेरे पास आओ !
मैं मारूंगा अभी नहीं तुझको
इसलिए बढ़ो! मत शंका लाओ !

हाँ हाँ आओ ! इसी प्रकार से
हड़प लूँगा माल मैं इसी प्रकार से,
मन में यह सोच रहा था लुटेरा
सामने खड़ा युवक था निर्विकार.

जाने फिर क्या ऐसी बात हुई..
नयनों से नयनों की बात हुई,
क्या तुम मोहन को जानते हो?
क्या कर्मफल को मानते हो?

जा पूछो ! बीवी -बच्चों से
जो माल पाप कर लता हूँ,
परिवार का पेट मैं पालता हूँ
क्या 'पाप के दंड' को बांटेंगे?

हाँ, हाँ, ठीक ही तो यह कहता है
नहीं, नहीं, चाल कोई यह चलता है,
नहीं, नहीं, हमें चाहिए जरूर पूछना
मेरा कर्मफल है किसको  भोगना?

लेकिन युवक को जाने न दूँगा
आने तक तरु में बाँध रखूँगा,
क्यों युवक ! मेरी शतर स्वीकार?
हाँ भाई ! मुझे है यह स्वीकार.

बोलो.. बच्चों. ! .सब .. बोलो  ..
मेरे मन की राधिका तुम भी बोलो,
जो छिन के माल मैं लाता हूँ
जो पाप कर्म नित मैं करता हूँ.

जिसकी रोटी तुम सब खाते हो
घर  बैठ  के  मौज  उड़ाते  हो,
उसका दंड भी क्या तुम भोगोगे?
उसमे क्या साथ मेरा निभाओगे?

देखो बापू ! हम बच्चे हैं...
ये गूढ़ बात हम क्या जाने ?
लेकिन जैसा सुना है हमने
जो करता है, वही भरता है.

बीवी मुखर हुई, वह भी प्रखर हुई 
बीवी ने बच्चों का साथ निभाया,
कर्मफल भोग से पिंड छुड़ाया
पति को देर तक कुछ समझाया.

तुम मुखिया हो परिवार के
परिवार पालना दायित्व तेरा,
अब पाप-पूण्य को तुम जानो
योग - भोग सब तुम जानो.

कर्म चयन में मानव स्वतंत्र
पर फल के भोग में वह परतंत्र
यहाँ ऋषि - मुनि जो रहते हैं
सभी एकमत से यही तो कहते हैं.

सबका अपना - अपना कर्म
सबका अपना - अपना कर्मफल,
व्यक्ति स्वयं अपना उत्तरदायी 
फलभोग का, वही है उत्तरदायी .

एकबार हुआ था भागवत कथा
आचार्य ने यही सुनाया था,
ईश्वर ने दिया है क्यों विवेक?
सोच समझकर करो प्रयोग.

तुमसे भी कहा था चलने को
लेकिन  मेरी  कब  सुनते  हो?
किया है हमेशा ही मनमानी
अब भी तो वही सब करते हो.

जब वापस लौटा अंगुलिमाल
एकदम से बदला -  बदला था,
गायब थी ऊँगली की माला.
वेश भी बहुत कुछ बदला था.

अंतर में ज्योति सी जल रही थी
मलिनता सारी स्वतः घट रही थी,
अब पाप -पूण्य का बोध हो रहा था
कृत कर्म उसे अब कचोट रहा था.

क्यों भोगूँ मैं, कर्मफल अकेले?
हाय! कितने जन्मों तक भोगूंगा,
मन में स्नेहिल फिर एक भाव जगा
चलो उस युवक से ही अब पूछूंगा.

आखिर प्रश्न उसी ने उठाया है
अब आगे राह भी दिखलायेगा,
चाहे  वह  जो  कोई  भी  हो..
गीता सी उत्तम बात बताया है.
आज  गुरु  उसे  ही  मानूँगा
नहीं रार उससे कभी ठानूंगा,
वह सचमुच है कोई दिव्य पुरुष
आह ! मिला मुझे आज सतपुरुष.

युवक ने भी अपनी कथा सुनाई
गौतम से बुद्ध तक की बात बताई,
देखकर समर्पण और अनुराग
कर दीक्षित संघ में, राह बतायी.

उसकी सब बिगड़ी बात  बनायी
अंगुलिमाल  अब  बन  गया  भिक्षु,
बुद्धं शरणं गच्छामि, संघं शरणं गच्छामि,
धम्मं शरणं गच्छामि, धम्मं शरणं गच्छामि. 




5 comments:

  1. उत्कृष्ट प्रस्तुति |
    बधाई सर जी ||

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  2. कहानी को सुंदर गीत में ढाला है

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  3. बहुत खूबसूरती से ढाला है पूरा प्रसंग्।

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  4. Thanks to all for kind visit and comments please.

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