Friday, June 8, 2012

रे मन! कदम बढाओ तुम.



न  देखो  तुम  जमाने को
वह तो मस्त है मस्ती में,
लाना है अब होश में उनको
है कलि की सर परस्ती में.

चुनौती दे रही है रात
डराती रात यह क़ाली.
न  तारे  हैं,  न चंदा है
अभी तो सुदूर अंशुमाली.

न देखो उसकी ओर अब तुम
देखो ! जो सामने थाली,
जलाकर ज्ञान का दीपक
सजा दो मन की यह थाली.

किरण मन से जो फूटेगी
तो पहले भय यह भागेगा.
तिमिर की बात क्या करते?
दौड़ा नवल प्रभात आयेगा.

जो धवल प्रभात आएगा
इस कलि की चाल मोड़ेगा,
मिलेंगे राह बहुत साथी
रे मन! कदम बढाओ तुम.

खिल जाएगी यह संस्कृति
प्रकृति का रूप निखरेगा,
होगा सत्यम तब अधिपति
होगी शिवं की सुन्दरम धारा. 

बची रही यदि संस्कृति अपनी
नहीं आयेगी मानव में विकृति,
वह नहीं बची तो निश्चित जानो
जीवन की दिव्यता छिन जाएगी.
जीवन में पशुता सी आ जाएगी.


6 comments:

  1. बची रही यदि संस्कृति अपनी
    नहीं आयेगी मानव में विकृति,
    वह नहीं बची तो निश्चित जानो
    जीवन की दिव्यता छिन जाएगी.
    जीवन में पशुता सी आ जाएगी.

    मन मोहक सुंदर अभिव्यक्ति ,,,,,

    MY RESENT POST,,,,,काव्यान्जलि ...: स्वागत गीत,,,,,

    ReplyDelete
  2. किरण मन से जो फूटेगी
    तो पहले भय यह भागेगा.
    तिमिर की बात क्या करते?
    दौड़ा नवल प्रभात आयेगा.

    ...बहुत सुन्दर...बहुत ही सारगर्भित और प्रेरक रचना...आभार

    ReplyDelete
  3. संस्कृति रहेगी तो मानवता भी बची रहेगी !
    सुन्दर !

    ReplyDelete
  4. वाह...
    किरण मन से जो फूटेगी
    तो पहले भय यह भागेगा.
    तिमिर की बात क्या करते?
    दौड़ा नवल प्रभात आयेगा.

    सुन्दर रचना
    सादर.

    अनु

    ReplyDelete
  5. बची रही यदि संस्कृति अपनी
    नहीं आयेगी मानव में विकृति,
    वह नहीं बची तो निश्चित जानो
    जीवन की दिव्यता छिन जाएगी.
    जीवन में पशुता सी आ जाएगी.
    सुदूर ,यथेष्ट विचारों का वाचन करती दृष्टि समीचीन व समकालीन है ,अभी भी समय है विवेचित करने का ,स्वयं को समाज को समग्र चेतना के साथ ...... बहुत -२ शुभकामनायें डॉ साहब

    ReplyDelete
  6. Thanks to all for kind visit and creative comments please. Thanks again.

    ReplyDelete