Wednesday, April 25, 2012

तख़्त और दरख़्त


तू वहीँ रह !
वह जो ऊंचा तख़्त तेरा.
अपनी जगह को 
खूब पहचानता हूँ मै.

शोभायमान तू खूब है
इस ऊंची जगह पर,
अवतरण हो तेरा,
मुझ नाचीज खातिर,
हरगिज नहीं चाहता हूँ मै.

देखकर आहें न भरना
मेरी दशा का कारण तू नहीं.
चाहो तो लुढका देना एक कंकरी.
अब कब शांति चाहता हूँ मै?

मेरे लिए क्या कम है यह?
हो विराजमान जिस तख़्त पर;
सूखा उसका दरख़्त हूँ मै.

                                जय प्रकाश तिवारी 
                                संपर्क: ९४५०६०२२४० 

5 comments:

  1. अच्छे भाव ।

    आभार भाई जी ।।

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  2. बेहतरीन भाव लिए उत्‍कृष्‍ट अभिव्‍यक्ति ।

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  3. आदरणीय डॉ साहब क्या निराली सम्वेदनशील कविता रची है आपने ,,,बिना स्वर बोलती हुयी .....प्रशंसनीय ...

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  4. हो विराजमान जिस तख्त पर, सुखा हुआ दरख्त हूं मैं
    बहुत सही कहा आपने। और इस दरख्त को कोई चाह नहीं ...

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