कहते हो प्यारे!
तो मान लेता हूँ,
हाँ, सो रहा था मैं.
चहरे पर देखा होगा
रंग तूने हास का.
मगर तुझे क्या पता?
तब रो रहा था मैं.
हास के दर्द को
तब ढो रहा था मैं.
हर बार आंसू गिरना ही
रोना नहीं होता.
हर हास भी ख़ुशी का
प्रतीक नहीं होता.
जैसे हर आंसू भी
दुःख में सना नहीं होता.
आंसू हर्ष - उल्लास के
अतिरेक में भी बहते हैं.
शबनम के मोती झरते है.
क्या रोना..
उसे तब भी कहते हैं.?
हाँ, सो रहा था मैं..
लेकिन खुले हुए थे नैन.
खुले हुय्र थे बैन,
खुला हुआ था कान.
सोया था या जगा हुआ,
अब तू ही इसे पहचान.
कुछ जप रहा था,
कुछ तप रहा था.
क्योकि
पलायन वादी नहीं,
समाज का रोगी हूँ.
क्या करूँ भोगी नहीं
कर्मठ योगी हूँ.
जब देखती दुनिया
वाह्य जगत को,
योगी अन्तः जगत
को देखता.
जब सारी दुनिया
नींद में होती
योगी दुनिया की
गति देखता.
जय प्रकाश तिवारी
26 - 04- 2012
कुछ जप रहा था,
ReplyDeleteकुछ तप रहा था.
क्योकि
पलायन वादी नहीं,
समाज का रोगी हूँ.
क्या करूँ भोगी नहीं
कर्मठ योगी हूँ.
वाह क्या बात है!!!
गहन विचारों में पगी बोधगम्य रचना विश्लेषित करती स्वयं को ,आत्मानुभूति का प्रगल्भ स्वरुप परिचय देता हुआ ,,,सुन्दर बन पड़ा है . साधुवाद डॉ साहब .
ReplyDeleteनमस्कार, सत श्री अकाल!
Deleteस्नेह और लगातार संपर्क में रहने के लिए आभार. क्या आपका email ad. बदल गया है? एक आर्टिकिल भेजी थी उन दिलिवेरेड दिखा रहा है. कुछ सुझाव आपसे लेने थे Sikhism पर, मेरी रचना में कुछ शब्द और प्रसंग आयए है. प्रेषण से पूर्व उन्ही पर चर्चा करना / अवलोकित करनाचाहता था... नया emai ad. यदि मो. नो. ९४५०८०२२४० पर भेजें तो कृपा होगी.
सादर,
जयप्रकाश
जब देखती दुनिया
ReplyDeleteवाह्य जगत को,
योगी अन्तः जगत
को देखता.
जब सारी दुनिया
नींद में होती
योगी दुनिया की
गति देखता.
वाह!!!!बहुत खूब सुंदर प्रस्तुति,..डा० साहब
MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: गजल.....
जब देख रहे थे तुम तो यहाँ था मैं
ReplyDeleteपर नहीं था मैं
बहुत सुंदर आध्यात्मिक रचना...आभार!
ReplyDeleteThanks to all for visit and comments.
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