तू वहीँ रह !
वह जो ऊंचा तख़्त तेरा.
अपनी जगह को
खूब पहचानता हूँ मै.
शोभायमान तू खूब है
इस ऊंची जगह पर,
अवतरण हो तेरा,
मुझ नाचीज खातिर,
हरगिज नहीं चाहता हूँ मै.
देखकर आहें न भरना
मेरी दशा का कारण तू नहीं.
चाहो तो लुढका देना एक कंकरी.
अब कब शांति चाहता हूँ मै?
मेरे लिए क्या कम है यह?
हो विराजमान जिस तख़्त पर;
सूखा उसका दरख़्त हूँ मै.
जय प्रकाश तिवारी
संपर्क: ९४५०६०२२४०
अच्छे भाव ।
ReplyDeleteआभार भाई जी ।।
प्रभावी भावमय सुंदर प्रस्तुति,...
ReplyDeleteMY RECENT POST...काव्यान्जलि ...: गजल.....
बेहतरीन भाव लिए उत्कृष्ट अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteआदरणीय डॉ साहब क्या निराली सम्वेदनशील कविता रची है आपने ,,,बिना स्वर बोलती हुयी .....प्रशंसनीय ...
ReplyDeleteहो विराजमान जिस तख्त पर, सुखा हुआ दरख्त हूं मैं
ReplyDeleteबहुत सही कहा आपने। और इस दरख्त को कोई चाह नहीं ...