तड़पना छोड़ दूंगा मै,
मुझे प्रस्तर बना दो तुम!
ये वादे तोड़ दूंगा मै,
मुझे जड़वत बना दो तुम!
तड़प ये छोड़ दूँ कैसे ?
जब तक चेतना जागृत,
मुहब्बत छोड़ दूंगा मैं,
मुझे अचेतन बना दो तुम!
मालूम न था तब यार!
याराना होता है ऐसा,
चाहे जड़ भी बना दोगे,
मुहब्बत कम नहीं होगी.
प्यार होता है- 'सचेतन',
इसे अब मैंने जाना है.
जिसे हम जड़ समझते थे,
उसमे स्पंदन भी होता है.
कहते प्यार जिसको हैं,
यह है उपहार, सृष्टि का.
यह मिलता नहीं सबको,
यह है, उपकार दृष्टि का.
शिला पर पोत के काजल,
दिल के बोल लिख दूँगा.
मगर पढ़ पाओगे तुम ही,
ऐसी लिपि में लिख दूंगा.
ये जानो दूर होकर भी,
नहीं तुम दूर हो सकते.
न अपने आप में इतने,
अधिक मगरूर हो सकते.
एक दिन वह भी आयेगा,
जब नंगे पाँव आओगे.
हो विकल शिलापट्ट पर,
सिर को तुम झुकाओगे.
लेकिन कहाँ उस क्षण,
शिला मै रह ही पाऊँगा,
शिला जो धार फूटेगी,
उसी से लौट आऊँगा.
धार गंगा की लाऊंगा
तुझे यमुना बना कर के,
संगम मै यहीं बनाऊंगा.
अब संगम यहीं बनाऊंगा.
संगम हुआ पत्थर प्रदेश में,
स्रोत पीयूष बहे समतल में.
कर पार अवरोध जीवन के.
हम लेंगे मुक्ति सागर तल में.
बूँद मिलेगा जब यह सागर में,
तब सागर ही यह कहलायेगा.
होगा फिर, एक दिन कुछ ऐसा,
बूँद में, सागर विलीन हो जायेगा.
तड़प यह मुक्ति का है द्वार,
तड़प यह छोड़ दूं कैसे?
जब तक चेतना जागृत,
तड़प यह छोड़ दूं कैसे?
जिसने शक्ति दी मुझको.
और अनुरक्ति दी मुझको.
जिसने भक्ति दी मुझको.
देगी मुक्ति जो मुझको,
तड़प वह छोड़ दूं कैसे?
तड़प यह छोड़ दूं कैसे?
वाह वाह वाह …………किन लफ़्ज़ो मे तारीफ़ करूँ …………लयबद्ध प्रस्तुति दिल मे उतर गयी और जीवन की वास्तविकता को खूबसूरती से पिरोया है…………बेहतरीन , शानदार लाजवाब प्रस्तुतिकरण्।
ReplyDeleteखुबसूरत भावनाओं की गागर ,छलकती बूंदें ,कोई भी भींग जाये ..... कुछ बादल ही आज ऐसे वर्षे की फिजां ही बदल गयी है .अति सुन्दर डॉ.साहब ,शुक्रिया /
ReplyDeletebahut khoobsurat prem pagi rachna...apne sathi ka aahwan karti hui.
ReplyDeleteख़ूब लिखा है आपने
ReplyDeleteप्यार होता है- 'सचेतन',
ReplyDeleteइसे अब मैंने जाना है.
जिसे हम जड़ समझते थे,
उसमे स्पंदन भी होता है.
waah...
वंदना जी, उदाव वीर भाई, अनामिका जी, रश्मि जी और गाफिल सर!
ReplyDeleteरचना पसंद आई आभार आप सब का. इस रचना को खूबसूरत बनाने में संगीता जी का भी सहयोग है. उनका ह्रदय से आभार. प्रेम की धार ही ऐसी होती है की सभी को भिगो दे. जिस प्यार में सब न भीनें वह प्यार नहीं, कहीं न कहीं लोकेशाना और वासना से युक्त है यह. प्रयास एक सागी और समर्पित प्रेम की अभिव्यक्ति का था. कितनी सफलता मिली है समीक्षक ही इसे बता सकता है. पाठकों को पसंद आये यही तो रचनाकार का पारिश्रमिक है. आभार आप सभी का.
हाँ, मित्रो!
ReplyDeleteएक बात और, इस रचना में कुछ दार्शनिक शब्दों का प्रयोग हुआ है. उन पाठकों के लिए जो इससे परिचित नहीं है, थोड़ा संकेत उचित प्रतीत हो रहा है. भक्ति धरा में, मुक्ति की चार कोटियाँ मणि गयी है . यह क्रमित प्रगति है.
सालोक्त मुक्ति - भक्त का अपने आराध्य के लोक में परवश. लोक के सभी सुखों का आस्वादन.
सार्ष्टि मुक्ति - आराध्य के यश, प्रभा मंडल से आप्लाविर आनंद की गंगा में गोटा लगाना.
सालोक्य मुक्ति - आराध्य के निजी क्षेत्र में प्रवेश, यहाँ अनुकम्पा अनिवार्य है.
सायुज्य मुक्ति - यह वैयक्तिक आत्मा का परमात्मा में अंतिम रूप से विलीनीकरण होना है. यहाँ भक्त और भगवान् में अभेद हो जाता है. कुछ भक्त इस सयुजा मुक्ति को भी ठुकरा कर भक्त रूप में अलग अस्त्तित्व बनाये रखना चाहते हैं जिससे भगवान् / आराध्य की सेवा का अवसर मिलता रहे. उनके अनुसार यह सायुज्य तो भक्ति की दासी है.
जिसने भक्ति दी मुझको.
ReplyDeleteदेगी मुक्ति जो मुझको,
भक्ति और दर्शन का सुंदर समन्वय।
Thanks to all visitors for their visit and kind comments please.
ReplyDeleteShandar Gagar me Sagar Dhany hain aap
ReplyDeleteDr RC Mishra
ReplyDeleteDr RC Mishra
ReplyDeleteDr RC Mishra Darshan ki adbhut prastuti Dhanya hain aap bahut bahutBadhayee
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