जिसे मोह सका न रूप - लावण्य,
जिसे मोह सकीं न कोई सुरबाला.
मोह सके जिसे न, ये ऊँचे महल,
मर मिटा वही एक कविता पर.
इस कविता में क्या है ऐसा?
न रूप - लावण्य, नहीं कोई पैसा.
फिर मन है क्यों इतना दीवाना?
फिरे मस्ती में अब यह मस्ताना.
चिंता नहीं किसी बात की उसको,
जब चाहे कह ले जो सूझे उसको.
मिल गया उसे - 'संवेदना कोष',
निछावर जिसपर सब राज- कोष.
सालोक्य - सायुज्य की चाह नहीं,
न अभिलाषा सार्ष्टि - सायुज्य की.
ये चारों जिसकी नित करे परिक्रमा,
इस कविता की देखो ऐसी महिमा.
यह कविता कृति है मानव की,
यह मानव है किसकी कविता?
मानव है कविता इस सृष्टि की,
यह सृष्टि है फिर किसकी कविता?
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हाँ, मित्रो!
एक बात और, इस रचना में कुछ दार्शनिक शब्दों का प्रयोग हुआ है. उन पाठकों के लिए जो इससे परिचित नहीं है, थोड़ा संकेत उचित प्रतीत हो रहा है. भक्ति धरा में, मुक्ति की चार कोटियाँ मणि गयी है . यह क्रमित प्रगति है.
सालोक्य मुक्ति - भक्त का अपने आराध्य के लोक में परवश. लोक के सभी सुखों का आस्वादन.
सार्ष्टि मुक्ति - आराध्य के यश, प्रभा मंडल से आप्लाविर आनंद की गंगा में गोटा लगाना.
सालोक्य मुक्ति - आराध्य के निजी क्षेत्र में प्रवेश, यहाँ अनुकम्पा अनिवार्य है.
सायुज्य मुक्ति - यह वैयक्तिक आत्मा का परमात्मा में अंतिम रूप से विलीनीकरण होना है. यहाँ भक्त और भगवान् में अभेद हो जाता है. कुछ भक्त इस सयुजा मुक्ति को भी ठुकरा कर भक्त रूप में अलग अस्त्तित्व बनाये रखना चाहते हैं जिससे भगवान् / आराध्य की सेवा का अवसर मिलता रहे. उनके अनुसार यह सायुज्य तो भक्ति की दासी है
एक बात और, इस रचना में कुछ दार्शनिक शब्दों का प्रयोग हुआ है. उन पाठकों के लिए जो इससे परिचित नहीं है, थोड़ा संकेत उचित प्रतीत हो रहा है. भक्ति धरा में, मुक्ति की चार कोटियाँ मणि गयी है . यह क्रमित प्रगति है.
सालोक्य मुक्ति - भक्त का अपने आराध्य के लोक में परवश. लोक के सभी सुखों का आस्वादन.
सार्ष्टि मुक्ति - आराध्य के यश, प्रभा मंडल से आप्लाविर आनंद की गंगा में गोटा लगाना.
सालोक्य मुक्ति - आराध्य के निजी क्षेत्र में प्रवेश, यहाँ अनुकम्पा अनिवार्य है.
सायुज्य मुक्ति - यह वैयक्तिक आत्मा का परमात्मा में अंतिम रूप से विलीनीकरण होना है. यहाँ भक्त और भगवान् में अभेद हो जाता है. कुछ भक्त इस सयुजा मुक्ति को भी ठुकरा कर भक्त रूप में अलग अस्त्तित्व बनाये रखना चाहते हैं जिससे भगवान् / आराध्य की सेवा का अवसर मिलता रहे. उनके अनुसार यह सायुज्य तो भक्ति की दासी है
यह कविता कृति है मानव की,
ReplyDeleteयह मानव है किसकी कविता?
मानव है कविता इस सृष्टि की,
यह सृष्टि है फिर किसकी कविता?
बहुत ही अच्छी प्रस्तुति ।
सालोक्य - सायुज्य की चाह नहीं,
ReplyDeleteन अभिलाषा सार्ष्टि - सायुज्य की.
ये चारों जिसकी नित करे परिक्रमा,
इस कविता की देखो ऐसी महिमा...अलौकिक से भाव
यह कविता कृति है मानव की,
ReplyDeleteयह मानव है किसकी कविता?
मानव है कविता इस सृष्टि की,
यह सृष्टि है फिर किसकी कविता?
...गहन प्रश्न उठाती बहुत सारगर्भित अभिव्यक्ति...आभार
अलौकिक अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteयह कविता कृति है मानव की,
ReplyDeleteयह मानव है किसकी कविता?
मानव है कविता इस सृष्टि की,
यह सृष्टि है फिर किसकी कविता?
बेहतरीन सृजन को मान, रचनाकार को ह्रदय से सम्मान ,सजीवता को परिभाषित करती मुखर अभिव्यक्ति .....प्रशंसनीय
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आनंददायक कविता..शांति देती कविता..खुद से साक्षात्कार कराती कविता..
ReplyDeleteकभी रुलाती तो कभी गुदगदाती कविता................
रचना और संक्षिप्त आलेख ज्ञानवर्धक रहे।
ReplyDeleteThanks to all visitors for their kind comments.
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