रूप अनूप महा -
जित देखूं वहाँ तक
रंग रंगाये है.
रंग में इसके
सृष्टि रंगी सारी
प्रकृति रंगी,
सभी दृष्टि रंगी है.
है कौन यहाँ जो
मस्त न झूमे?
कोई काहे मदन पे
आरोप लगाये है.
धरा यह रंगीन,
छाई नभ में भी लाली.
पवन झकोर बहे,
कैसी मतवाली है.
तरुओं की डाली झुक,
गले से गले हैं मिले.
वल्लरी-लताएँ देखो
कैसे उर को सटाए है?
देख के झकोर यह
रसिया का मन डोले.
वहाँ बैठ खिड़की पर,
कोई मन डोले है.
कर गहि लेखनी को,
लिखत मिटावत पुनि
बात उर कहने में
जिया सकुचात है.
पवन को दूत
बना के जो भेजा है.
कोट को भेद वह
ह्रदय में समात है.
आह यहाँ मिक्से
है जो हिया से.
वह जात वहाँ लौ
शूल बन जात है.
काहे स्वीच आफ
किये हो मोबाइल के?
वह चार्ज नहीं है या
और कोई बात है?
डॉ. जय प्रकाश तिवारी
अनुपम भाव संयोजन लिए बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteवाह...प्रकृति से मोबाईल तक..प्रेम के पास हजार साधन हैं...
ReplyDeleteरचना पसंद आई इसका समर्थन और सार्थक टिप्पणी के लिए आभार,
ReplyDeleteआपकी ये रचना कल 6 - 3 - 2012 नई-पुरानी हलचल पर पोस्ट की जा रही है .... ! आपके सुझाव का इन्तजार रहेगा .... !!
ReplyDeleteबढ़िया भाव....बढ़िया प्रस्तुति...
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना ... होली की शुभकामनायें
ReplyDeleteसुन्दर रचना...
ReplyDeleteहोली की शुभकामनायें
बेहतरीन भाव संयोजन
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति
होली पर्व कि आपको हार्दिक शुभकामनाएँ ....